About Didi Maa

Wednesday, November 20, 2013

वात्सल्य धारा से तृप्त होते जीवन...

उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा के बाद से पूज्या दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा जी लगातार इसी क्षेत्र में रहकर पीडि़तों के आहत दिलों पर अपनी करुणा का मरहम लगाने का सतत् प्रयत्न कर रही हैं। पूरी केदारघाटी में जगह-जगह अभी भी मार्ग पूरी तरह से सुगम नहीं हुए हैं। भूस्खलन का खतरा निरन्तर बना हुआ है। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी वे यहाँ संचालित ‘वात्सल्य सेवा केन्द्रों’ को अपना पावन मार्गदर्शन देकर यहाँ के लोगों को इस दुखद घटना से उबारने की हरसंभव कोशिश कर रही हैं। अपनों को खोने का दर्द अव्यक्त होता है। अपने किसी प्रिय का अचानक दुनिया से चले जाना तोड़कर रख देता है।

रूद्रप्रयाग जिले की पहाडि़यों में बसा एक छोटा सा गाँव है - सेमी। 16 जून को बरसी आसमानी आफत ने सारे गाँव को खंडहर करके रख दिया। खेती और चारधाम यात्रा संबंधी छोटे-मोटे व्यवसायों से जुड़े यहाँ के निवासियों ने पाई-पाई जोड़कर अपने घर बनाए थे जो घर तो अब भी दिखते हैं लेकिन रहने लायक नहीं रहे। घनघोर बारिश के बाद इस पूरे गाँव की जमीन ही अपने आप नीचे की ओर धंसने लगी। देखते ही देखते दरकते मकान उनमें रहने वालों के सपने भी चकनाचूर कर गए। दुःख की बात तो यह है कि शासकीय तौर पर ऐसे घरों को पूर्णतया नष्ट नहीं माना गया है इसलिए राहत राशि भी उतनी नहीं मिली। मरम्मत की राहत राशि से भला चित्र में दिखाई दे रहे मकान को क्या रहने लायक बनाया जा सकता है? बहरहाल, पास आते जा रहे भीषण ठण्ड के मौसम की डरा देने वाली आशंकाओं के बीच इस गाँव के लोग टेण्टों में रहने को विवश हैं। वात्सल्यमूर्ति पूज्या दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा जी के पावन मार्गदर्शन में परमशक्ति पीठ के ‘वात्सल्य सेवा केन्द्र’ ने इस गांव की पीड़ा को अनुभव किया और उनके बीच सभी आवश्यक राहत सामग्री का वितरण किया। गाँव के प्रधान बताते हैं कि वात्सल्य सेवा केन्द्र के माध्यम से हमें केवल सहायता ही नहीं बल्कि इस मुसीबत से लड़ने की शक्ति भी मिली है।

त्रियुगीनारायण - उत्तराखंड के अतिप्राचीन स्थानों में से एक। कहा जाता है कि यहाँ पर भगवान शिवशंकर एवं माता पार्वती का विवाह हुआ था। हजारों वर्ष पुराना यह स्थान रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है। उत्तराखंड त्रासदी की
रात को यहाँ के निवासियों ने सैकड़ों तीर्थयात्रियों को भोजन-पानी और आश्रय देकर उनकी प्राणरक्षा की। यहीं पर रहने वाले पेशे से ड्राइवर ललितप्रसाद किसी शारीरिक बीमारी के दौरान हुए इलाज में किसी दवाई के दुष्प्रभाव से इनके दोनों पैर अशक्त हो गए। वे बिना किसी की सहायता के एक कदम भी नहीं चल सकते। दुर्भाग्य ने यहीं पीछा नहीं छोड़ा। जंगल में अचानक आग लगी और वहाँ घास लेने गई पत्नी की झुलसने से मृत्यु हो गई। दो पुत्रियों और एक पुत्र के इस पिता के पास गुजारे का कोई साधन न था। जैसे तैसे गाँव वालों की कृपादृष्टि से बस जीवन चल रहा था। उत्तराखंड त्रासदी के बाद दीदी माँ जी के पावन मार्गदर्शन में वहाँ राहत कार्य आरंभ हुए। ‘वात्सल्य सेवा केन्द्रों के कार्यकर्ता भाई-बहन जब त्रियुगीनारायण पहुंचे तो वहाँ उनकी मुलाकात ललितप्रसाद से हुई। जब उन्हें बताया गया कि ज़रूरतमंद परिवारों के बच्चों के लिए वात्सल्य सेवा केंद्रों में रहने और स्कूली शिक्षा के लिए समुचित व्यवस्था की गई है तो वे अपनी दोनों बेटियों को वहाँ भेजने के लिए सहर्ष तैयार हो गए। ये दोनों बच्चियां इस समय केदारनाथ मार्ग स्थित ग्राम कोरखी में संचालित ‘वात्सल्य सेवा केन्द्र’ में रहकर अपनी स्कूली शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। पुत्र की स्कूल फीस भी संस्था ही वहन करती है। ललितप्रसाद बहुत ही कृतज्ञ भाव से कहते हैं कि -‘मैं अपनी दोनों बेटियों को लेकर बहुत चिंतित था कि कैसे इनकी पढ़ाई-लिखाई होगी लेकिन दीदी माँ जी की कृपा से आज वे दोनों अच्छी पढ़ाई के साथ-साथ अच्छे संस्कार भी ग्रहण कर रही हैं। मैं तो आजीवन उनका ऋणी रहूँगा।’ उनकी दोनों बेटियां शिवानी और काजल यहाँ रह रहे सब बच्चों के साथ बहुत खुश हैं। पहले की तरह अब उन्हें अपने घर की याद नहीं आती। पांचवी और चैथी कक्षाओं में अध्ययनरत् ये दोनों बच्चियां दीदी माँ जी का स्नेहिल प्यार पाकर अभीभूत हैं।

- दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा 
  सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, नवम्बर 2013

Saturday, November 16, 2013

प्रकृति में प्रवेश करें, प्रहार नहीं

भगवान केदारनाथ की तपस्थली जहाँ पल-प्रतिपल देवत्व की अनुभूति होती है ऐसी पावन धरा पर आकर जीवन अपनी धन्यता को अनुभूत करता है। देवभूमि उत्तराखंड जाकर मैंने इस संभावना को तलाशा कि हम वहाँ के आपदा प्रभावित माताओं और बच्चों के लिए क्या कर सकते हैं। निश्चित रूप से पूरा विश्व उत्तराखंड में आई इस आपदा के कारण मानसिक रूप से उद्वेलित हुआ है। मदद के लिए चाहे कोई आ पाया हो या नहीं लेकिन इस संकट को सबने अपने मन में एक घोर कष्ट के रूप में अनुभव किया। मुझे लगता है कि प्रकृति तो माँ है। वो सबका भरण-पोषण करती है, लेकिन जब हम अपनी सीमाओं से बाहर जाते हैं तो जैसे माँ अपने बच्चे की किसी गलती पर उसे तमाचा मार देती है ना, बस वैसा ही कुछ इस त्रासदी में प्रकृति ने हमारे साथ किया है। जब मैं आपदा के तुरन्त बाद पहली बार उत्तराखंड गई थी तब मंदाकिनी मैया से मैंने मन ही मन कहा कि -‘हे माँ तुम तो वात्सल्यमयी हो ना, अपनी संतानों पर वात्सल्य लुटाने वाली? तुम तो वात्सल्य का मर्म हो ना? तुम्हीं तो प्राण हो, तुम ही तो प्रेरणा हो। तुम देवभूमि का उत्सव हो माँ। फिर तुम क्रोधित क्यों हुईं? तुमने इतना विकराल रूप क्यों दिखाया कि तुम्हारी अपनी संतानें तुम्हारे प्रबल प्रवाह में पत्तों की तरह बह गईं? ऐसे बहुत सारे उद्वेलन भरे प्रश्न मन में थे। उत्तर कहाँ से तलाशेंगे? यदि हमारे मन में कहीं विचलन है तो उसका समाधान भी हमें ही खोजना होता है।

हम यदि गंभीरतापूर्वक अनुभव करें तो पाएंगे कि भूमि के कंकर-कंकर में शंकरत्व समाया हुआ है। जैसे देवों के साथ मर्यादापूर्वक व्यवहार किया जाता है। माता-पिता के साथ मर्यादापूर्वक व्यवहार किया जाता है। उसी प्रकार का व्यवहार प्रकृति माता के साथ भी किया जाना चाहिए। माँ के स्तन से दूध पीना शोभा देता है परन्तु माँ के स्तन से उसका रक्त पीना एकदम अशोभनीय है। यह बात सारे संसार के लिए पाथेय है। हजारों वर्ष पहले के भारतीय ऋषियों ने ईश्वरीय सत्ता से केवल मानवता के लिए ही नहीं बल्कि वनस्पतियों, औषधियों और अंतरिक्ष तक के लिए शांति मांगी थी। इसका मतलब यह है कि युगों पहले भारतीय संस्कृति के संवाहक ऋषियों को यह दृष्टि थी कि एक समय वह भी आएगा जब केवल धरती ही नहीं बल्कि अंतरिक्ष की शांति भी भंग हो जाएगी। इसीलिए उन्होंने चारों ओर शांति के लिए प्रार्थना की। जब धरा मनुष्य की फेंकी हुई गंदगी से त्रस्त हो जाएगी। जब औषधियां भी विषाक्त हो जाएंगी। ऐसे समय में केवल शांति की आवश्यकता होगी। उस शांति की कामना भारत के ऋषियों ने की थी। यह कैसे संभव होगा! इसके लिए अशांति के इस विष को अपने कण्ठ में रखने की सामथ्र्य चाहिए। इस सामथ्र्य को पैदा करने के लिए जीवन में साधना चाहिए। हर व्यक्ति को अपने-अपने स्तर पर साधना करनी होगी।

प्रकृति परमेश्वर है उसे पाना है तो उसमें प्रवेश करना होगा। प्रहार करने से वो आहत होती है। हमने प्रहार किया वृक्षों पर, हमने पर्वतों को नोंच डाला अपने क्षुद्र स्वार्थों के कारण। प्रकृति कभी बदला नहीं लेती बल्कि हम ही अपने दुष्कर्मों को त्रासदियों के रूप में भोगते हैं। ‘लम्हों ने खता की और सदियों ने सजा पाई’ केवल कहावत नहीं प्रासंगिकता है। हम जो भोग रहे हैं उसे हमने ही निमंत्रित किया है। किसी भी अनहोनी से बचने के लिए हम सदा परमात्मा को पुकारते हैं। लेकिन प्रकृति में छुपा परमात्मा क्या उस पर प्रहार करने से मिलेगा? नहीं, उसे पाने के लिए हमें उसमें प्रेमपूर्वक प्रवेश करना होगा। प्रवेश की यह सुन्दर प्रक्रिया फिर विनाश का कारण नहीं बनेगी अपितु हमें उस विराट का एक हिस्सा बना लेगी जिस पर हमारा जीवन निर्भर है।

अशांति के इस विष को अपने कण्ठ में रखने की सामथ्र्य हमें शंकर बनाती है। जबसे मैंने देवभूमि के दिव्य आभामंडल में प्रवेश किया है तब से मन से यह बात निकलती है कि आप उत्तराखंडवासी इतनी भयानक विपत्ति के समय में भी अपने भीतर स्थित रहे। मौत के इस तांडव को अपनी आँखों से देखने के बाद भी उनका विवेक बना रहा। यही धर्म का प्रसाद है कि हम घोर संहार के बीच में भी जो अविनाशी तत्व है उसका दर्शन करें। धर्म दृष्टि देता है कि जब सब कुछ मिटने वाला नाशवान है तो फिर हम पदार्थों के पीछे पागल क्यों हों। लोग कहते हैं कि महानगर तो केवल पदार्थों की ही दुनिया है। लेकिन भारत का गौरवशाली अतीत पदार्थों के पीछे नहीं भागा था। परमात्मा के लिए, प्रेम के लिए, प्रीत के लिए, सेवा के लिए, करुणा के लिए, असहायों का हाथ पकड़ने के लिए उस भारत के मन में भाव था। हम पैसे या पेट के लिए नहीं पैदा हुए। ये जो देवभूमि है वह सारे संसार के आकर्षण का केन्द्र है। जब सारा संसार पदार्थों के पीछे भागते-भागते थक जाता है तब वह शांति की तलाश में इसी देवभूमि पर आता है। लेकिन क्या वह यात्री भाव से आता है? नहीं, वह केवल मनोरंजन के लिए आता है। उसकी वह तथाकथित शांति केवल ‘इंटरटेनमेण्ट’ है। जिस देवभूमि में तीर्थयात्री भाव से आना था उस पर वह केवल मनोरंजन के भाव से आता है। यहाँ आकर तो मन का भंजन हो जाना चाहिए, यहाँ आकर तो ‘अ’ मन हो जाना चाहिए। यह वह भूमि है जहाँ मेरे शंकर का परिचय है जो ‘अ’मन के लिए रहता है और विवाह करता है। मेरे शंकर ऐसे हैं जो नैतिकता के लिए पत्नी का त्याग कर सकते हैं। मेरे शंकर अपनी पत्नी का शव लादकर सृष्टि में दौड़ सकते हैं। मेरे शंकर तो ऐसे हैं जो अपने ही दोषों को संहार कर सकते हैं। मेरे शंकर तो खतरों का श्रृंगार कर सकते हैं। मेरे शंकर सारे संसार का विष पी सकते हैं। मेरे शंकर तो घोर अभावों के बीच भी जी सकते हैं। मेरे शंकर और उनका शिवत्व कभी नष्ट नहीं होता। इसी शिवत्व का दर्शन करने के लिए सारा संसार एक आकर्षण में बंधकर इस देवभूमि पर आता है।

इस भूमि पर विराजमान शिव एक असाधारण शक्ति हैं। वो मात्र पदार्थों या वासना के लिए नहीं जीते। हम सबका यह बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है कि हमारी यह देवभूमि ‘देवभूमि’ बनी रहे। हम दुनिया को बदलेंगे। अगर दुनिया ने हमको बदल दिया तो हमारी परंपरा, हमारी मान्यताएं, हमारी शांति और आनन्द वह तो फिर सब नष्ट हो जाएगा। अभी तो उल्टा हो गया। हमने दुनिया को बदलना था लेकिन दुनिया ने हमें बदल दिया! हम पदार्थों के पुजारी हो गए! निश्चित रूप से प्रकृति या परमात्मा के द्वारा प्राणियों को जो चोट पहुँचाई जाती है वो नष्ट करने के लिए नहीं बल्कि कुछ नया आकार देने के लिए होती है। जैसे बच्चे में कोई दोष आ जाए तो माता उसे थोड़ा सा दण्ड देकर सुधारती है, मैं इस दृष्टि से उत्तराखंड की इस प्राकृतिक आपदा को देखती हूँ। घोर विपति के इस समय में मैंने उत्तराखंड के आपदा प्रभावित इलाकों के घरों में जाने का प्रयास किया। मैंने देखा कि यहाँ मातृशक्ति के पसीने से ही यह देवभूमि हरी भरी है। मन करता है कि मैं देवभूमि की माताओं का वंदन करूं।

घर में चूल्हा जला, मवेशियों को चारा मिला, तुमने खेतों को अपने पसीने से सींचा, तुमने संतानों को भी संस्कार दिया। हे माँ, जब मैं तुम्हें देखती हूँ तो लगता है कि मैंने साक्षात् पार्वती माता का दर्शन कर लिया। वो अम्बा, वो जगदम्बा जो अपनी संतानों के लिए श्रम का पसीना बहाकर अपने मकान को ‘घर’ बनाए, मैं उसका दिल से अभिनन्दन करती हूँ। तेरे कारण ही तो मंदिरों के दीप जगर-मगर होते हैं माँ। तेरी साधना अविरत है माँ। वह तो एक नदी की तरह सतत् प्रवाहमान है। तुम्हारी संतानों को देवत्व मिले ये जिम्मेदारी तुम्हारी है। परिस्थितियों से घबराकर असहाय हो जाना शंकर के भक्त जानते ही नहीं हैं क्योंकि घोर अभावों के बीच भी वे अपने आप में स्थित रहने की कला जानते हैं। इसलिए इस समय हमारे लिए जो करणीय है वो हमें करना चाहिए। चिंतन करना चाहिए और उसी चिंतन के मंथन में से अमृत निकलेगा ये बात निश्चित है।

अगर हम शंकर नहीं बने तो क्या हुआ। अरघे के ऊपर नहीं बैठ सके तो क्या हुआ? लेकिन अरघे तक भक्तों जो सैलाब उमड़कर जाता है यदि उन सीढि़यों के कंकर बनने का अवसर भी यदि मिल जाए तो यह भी एक बहुत बड़ा सौभाग्य है। कौन ऐसा शंकर है जो कंकरों मंे से पैदा नहीं होता? क्योंकि कहा भी गया है कि ‘पत्थर जो चोट खा कर टूट गया, कंकर बन गया और पत्थर जो चोट को सह गया वह शंकर बन गया।’ इसलिए परिस्थितियों की चोटों के बीच भी हमें हमारे अस्तित्व, हमारी परंपराओं, हमारी मान्यताओं को शुभ और शिव के साथ जोड़े रखना है। मैं उत्तराखंडवासियों के बीच बैठकर यह अनुभव करती हूँ कि मुझे सहज रूप से वहाँ के नन्हें बच्चों और माता-बहनों के उत्कर्ष के लिए कार्य करना है। वृंदावन के वात्सल्य ग्राम में भी हमने इन्हीं भाव संबंधों पर कार्य किया और एक बड़ा वात्सल्य परिवार बनाया। जिनका कोई नहीं था उन सबको मिलाकर एक अद्भुत परिवार बन गया। हमने कोशिश की है कि हम उत्तराखंड के आपदाग्रस्त इलाकों के लोगों तक अपने सेवाकार्यों को पहुंचा सकें। देवभूमि में पवित्रता पाने के लिए आया जाता है, कुछ देने के लिए नहीं। इसलिए हम अपनी सेवाएं भी इसी भाव के साथ यहाँ समर्पित कर रहे हैं। अपनी सेवाओं के बदले हम सब लोगों को यहाँ की पावनता और शुचिता का प्रसाद मिल सके, यही भाव है परमशक्ति पीठ का। उत्तराखंड की बहनों की आँखों से बहे आँसुओं ने मुझे बहुत भीतर तक द्रवित किया। मैं भूल गई कि मैं एक संन्यासिनी हूँ। मैंने केवल एक साधारण स्त्री के दर्द को अपने अन्दर महसूस किया। मैंने अपने गुरुदेव से कहा कि उत्तराखंडवासी बहनों के आशुओं के प्रवाह में मेरे विवेक का बाँध टूट गया। मैं एक सामान्य स्त्री के धरातल पर आकर खड़ी हो गई। उनकी वो पीड़ा मेरी आँखों से मंदाकिनी के प्रवाह की तरह बहती रही। मैं भी एक स्त्री हूँ, मैं भी एक माँ हूँ, मैं भी दीदी हूँ। मैं यह जानती हूँ कि जब मन का दर्द बहुत ज्यादा हो जाता है तो मनुष्य को स्वयं ही उसकी दवा भी बनना पड़ता है। बहुत सारे दुखद दृश्यों को यहाँ आकर देखना पड़ा। लेकिन अपने पैरों पर खड़ा ही एक मार्ग है। किसी दूसरे की ओर आशा से देखना स्वाभिमानशून्यता है। किसी दूसरे पर निर्भर होना भारत के किसी भी बच्चे और स्त्री को शोभा नहीं देता। हम अपनी विषम परिस्थितियों से निकलकर स्वयं ही अपने पैरों पर खड़े होंगे, हमें यह निश्चय करना है। भारत को यही निश्चय चाहिए। तात्कालिक परिस्थितियां ज़रूर कभी-कभी ऐसी होती हैं कि वो बड़े-बड़ों को हाथ फैलाने पर विवश कर सकती हैं लेकिन बहुत लंबे समय तक ऐसा नहीं रहना चाहिए। हम यदि गिरें तो भले ही किसी का हाथ उठने में हमारी सहायता कर दे लेकिन फिर आगे का सफर हमें अपने कदमों पर ही तय करना चाहिए। सहायता भी एक सीमा तक ही लेनी चाहिए। नहीं तो सहायता लेते ही रहना हमें अकर्मण्य बना देता है। यहाँ उत्तराखंड में वात्सल्य का हमारा यह कार्य यहाँ के लोगों को त्रासदी से उबारकर अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए ही चलाया जा रहा है। निश्चित रूप से यह ईश्वर की किसी बड़ी योजना का ही एक हिस्सा होगा क्योंकि हम सब तो उनके हाथों की कठपुतली भर हैं। उन्हें हमसे जो करवाना है वह उसे हमें अपना निमित बनवाकर कर लेते हैं।

यहाँ वे सारे लोग जिनको इस त्रासदी में फंसकर अन्त्येष्टि की आग भी नसीब नहीं हुई, जो मंदाकिनी मैया की धार में बहे या फिर पहाड़ों के नीचे दब गए मैं उन सबको अपनी करुणा का अघ्र्य अर्पित करती हूँ। निश्चित रूप से भगवान शंकर सबका कल्याण करते हैं। ये मृत्यु बहुत दुखदायी थीं लेकिन वह जो कुछ भी था प्रभु की योजना था। उनकी योजना के सामने कोई योजक टिक नहीं सकता। उसका प्रवाह ऐसा है कि मनुष्य का अहंकार उसके आगे पत्तों की तरह बिखर जाता हैै। इसलिए हम अपने उस अभिमान से मुक्त होकर शिवत्व को समझें। इस त्रासदी के सभी मृतक प्रभु के चरणों में हैं उनका कल्याण ही होगा। मैं भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि उत्तराखंडवासियों का जीवन दोबारा पटरी पर आए, भगवान केदारनाथ जी के दर्शनों की यात्रा पुनः प्रारंभ हो ताकि यहाँ के निवासी फिर से अपने पैरों पर खड़े हो सकें ताकि हम किसी के मुखापेक्षी ना बनें, लेकिन उस मर्यादा के साथ जो भगवान ने हमारे लिए निश्चित की है।

मैं समझती हूँ कि सबसे सुन्दर दृश्य संस्थाओं या पदार्थों को खड़ा करके नहीं उत्पन्न होगा बल्कि इसके लिए वैचारिक क्रांति को जन्म देना होगा। हमें अपनी प्राचीन पवित्रता को लौटाना होगा। मर्यादाओं के साथ अपनी जीवन की तेजस्वी आभा को प्राप्त करना होगा। लेकिन इसके लिए हमें प्रवेश करना होगा। आप जानते हो कि महंगा धन तिजोरी में रखा जाता है और फिर उस पर एक मजबूत ताला लगाया जाता है। ताला तिजोरी से भी कम कीमती होता है जिसके भरोसे पर ही धन को छोड़ा जाता है। फिर उस ताले को खोलने और बन्द करने वाली चाबी तो ताले से भी कम कीमती होती है लेकिन सबसे ज्यादा भरोसा उस छोटी सी चाबी पर ही किया जाता है ना? इतने महंगे धन को उससे कम कीमत की तिजोरी में रखा, उससे भी कम कीमत का ताला लगाया और सबसे कम कीमत की चाबी के भरोसे उसे छोड़ा! एक दिन हथौड़े ने चाबी से पूछा कि ‘मैं दिनभर ठक-ठक करता रहूँ तो ये ताला टूट तो जाएगा लेकिन खुलेगा नहीं लेकिन तू इसे चुपचाप इतनी आसानी से कैसे खोल लेती है?’ चाबी ने उत्तर दिया -‘भैया, इस ताले के चुपचाप खुलने और बन्द होने का रहस्य इतना सा है कि मैं इसे खोलने के लिए इसके भीतर प्रवेश करती हूँ और तुम इसे खोलने के लिए इस पर प्रहार करते हो।’ कदाचित हम भी उस चाबी की तरह ही प्रेमपूर्वक अपनी भूमिका में प्रवेश करना सीखें। ये जो आपदा उत्तराखंड मंे आई यह प्रकृति पर हमारे निरन्तर प्रहार का ही नतीजा है। हमने आस्थापूर्वक प्रकृति में आंचल में प्रवेश करना सीखा ही नहीं। भारत के ऋषियों का दर्शन हमें प्रवेश करना सिखाता है। इसीलिए वर्षों तक साधना में रहने वाले ऋषि ने ग्रह-नक्षत्रों की चाल और गणना को समझ लिया था। वह प्रवेश था और प्रकृति में प्रवेश ही परमात्मा तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग है।

- दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा 
- सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, नवम्बर 2013

Wednesday, October 23, 2013

भारतीय जनतंत्र की मुखर आवाज थे भानु भैया के शब्द

आज भैया निश्चित रूप से हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृतियां, उनकी यादें पल-पल हमको प्रेरणा देती हैं। भानु भैया कहते थे कि जीवन में न तो अभाव दिखना चाहिए और न ही प्रभाव। चित्त में भी अभाव नहीं होना चाहिए। वैभव का, पदों का अथवा प्रतिष्ठा का प्रभाव भी चित्त में नहीं होना चाहिए। ऐसा नहीं होने पर न तो तुम सत्य कह सकोगे और न ही उसे अपने जीवन में धारण कर सकोगे। सत्य के पक्ष में खड़े नहीं हो सकोगे और परेशान हो जाओगे। यदि सत्य कहना है तो उसके लिए व्यक्तित्व में नैतिकता की आग जलनी चाहिए। केवल छवि और छाया में जी रहे हो तो तुम असली नहीं हो, तुम्हारी छवि पत्रकार जगत जानता है। यह बात सभी जानते हैं कि मीडिया के द्वारा छवि बनती है और छाया भी बनती है। छवि और छाया सही हो यह ज़रूरी नहीं है। आपने जिसके गीत गा गाकर उसे जनता के मानस पटल पर स्थापित कर दिया उसके पास राष्ट्र का दर्द है भी या नहीं, यह बात आम जनता नहीं जानती। यह भी हो सकता है कि किसी चरित्रवान व्यक्ति की छवि और छाया को बिगाड़ दिया जाए। वीर सावरकर जैसे भारत माता के लाल के लिए पार्लियामेंट में यह चर्चा हो कि इनका चित्र यहाँ लगना चाहिए या नहीं, यह शर्मनाक है। जिन्होंने समुद्र की उत्ताल तरंगों में पौरुष के अभिलेख लिखे या अंडमान की काली कोठरियों में अपने रक्त से पत्थर की भित्तियों पर शौर्य की कहानियां लिखीं आज उनका नाम लेने में हमको डर क्यों लगता है? हम शर्मिन्दा क्यों होते हैं?

भानु भैया कहते थे कि पत्रकारिता एक मिशन होना चाहिए। वो केवल आपका कैरियर भर नहीं हो सकता और हाँ पत्रकार ही क्यों? अगर कोई देश का प्रधानमंत्री बनने की कल्पना भी करता है तो प्रधानमंत्री बनना साधन तो हो सकता है लेकिन साध्य नहीं हो सकता। मात्र राष्ट्रनिर्माण की कल्पना को साकार करने के लिए वो पद एक साधन मात्र है और अगर पद साध्य बन जाएंगे तो फिर लक्ष्य को कैसे पाया जा सकेगा? अभी तक तो हमने यही देखा है। डाॅक्टर बनना क्या उद्देश्य है? डिग्री हासिल करना क्या उद्देश्य है? धन कमाना क्या उद्देश्य है? नहीं वो तो केवल सााधन मात्र है। वह उद्देश्य नहीं हो सकता। उद्देश्य के बिना जीवन पशु के समान होता है। अगर आपका कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं है तो फिर आपकी जि़न्दगी निरर्थक है इसलिए वो जो हमारे पास आ गया वो तो मात्र साधन है लेकिन उसके माध्यम से जो पाना आना है वो उद्देश्य है। उद्देश्य क्या है? राष्ट्र निर्माण उद्देश्य है, सारी सृष्टि में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना जागृत बनी रहे वो उद्देश्य हो सकता है। माँ भारती के चेहरे पर मुस्कान बनी रहे वो उद्देश्य है। मेरा जीवन समष्टि के लिए अर्पित हो ये उद्देश्य हो सकता है। मेरा ‘अहं’ परिवर्तित होकर ‘वयं’ बने, ये उद्देश्य है। मेरा जीवन सत्य को धारण करे, मैं सत्य को जी सकूँ, मैं धर्म को धारण कर करूँ, धर्म के फल को धारण करूँ ये उद्देश्य है। मैं मनुष्य होकर अपने भीतर के मनुष्यत्व को जाग्रत करूँ, नारायणी भाव को प्राप्त करूँ। उद्देश्य ये है कि मैं केन्द्र के बिन्दु को भी जानूँ और परिधि के परिधान को भी जानूँ। उद्देश्य ये है कि व्यक्ति से मैं समष्टि हो जाऊँ, उद्देश्य ये है कि मैं पेट और पैसे के लिए नहीं अपितु परमात्मा के लिए जियूं, और परमात्मा मात्र कोई छोटी धारणा नहीं है वो विराट है और उद्देश्य क्या है? व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर समष्टिगत सेवा में तत्पर होना उद्देश्य है।

भानु भैया ने इन्हीं सब उद्देश्यों के लिए अपने जीवन को जिया। उनकी लेखनी को देखिए उनकी किसी भी पुस्तक में। उनके द्वारा वह सब जो सन् 1980 या 85 में लिखा गया, आज भी प्रासंगिक लगता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह सब आज के लिए ही लिखा गया हो, अभी इस क्षण के लिए लिखा गया हो। भानु भैया कहते थे कि अतीत ही सत्य है क्योंकि लोग कहते हैं न कि बीती को बिसार दे। वो कहते थे कि केवल उपदेशक होकर यदि कोई अपनी मति या गति का परिचय देना चाहता है तो वह एक तरह का अनर्गल प्रलाप करता है क्योंकि अभी अभी जो पल है वो अभी-अभी ही अतीत भी हो जाएगा। अतीत में डाला हुआ बीज ही तो वर्तमान में वृक्ष है या भविष्य का फल है तो अतीत में से क्या लोगे। अतीत में मूल्य हैं, अतीत में निष्ठा है, अतीत में प्रमाणिकता है। अतीत को उठाकर देखिये, वहाँ सत्य की आभा है, वहाँ अपने लिए नहीं अपनों के लिए चित्त में जीने का भाव है। अतीत के उन मूल्यों के साथ ही, उसकी उस बुनियाद के साथ ही तुम भविष्य के उस भवन को खड़ा कर सकते हो।

मैं भानु भैया के साथ बहुत वात्सल्य, नेह, पे्रम के नाते से जुड़ी रही। वात्सल्य ग्राम के कण-कण में भानु भैया विराजमान हैं, उनका विचार विराजमान है। एक बार मैंने उनसे कहा कि -‘भैया, मैं ऐसे नवजात बच्चों को, जिन्हें लोग कूड़े के ढेर पर फेंक देते हैं, त्याज्य मानकर संसार उनको अवैध कहता है तो मैं बहुत व्याकुल हो जाती हूँ, इस बारे में आप कहोगे?’ तो भैया बोले -‘माँ, सम्बन्ध भले ही अवैध हो सकता है लेकिन संतान कभी अवैध नहीं होती। वो तो सनातन की होती है।’ मैंने कहा -‘भैया, मैं कल्पना करती हूँ कि देश के बच्चों को ममतामयी गोद मिले, प्यार मिले।’ वो बोले -‘माँ, तुम एक ऐसा गाँव बनाओ जो देवकियों की कोख वाला गाँव न हो बल्कि यशोदाओं की गोद वाला हो। तुम ऐसा प्रयत्न करो कि कण्व ऋषि का वो वात्सल्य नेह प्रेम साकार हो जो तुम्हारे दिल में उमड़ता, घुमड़ता रहता है।’ भानु भैया ने ही मुझे नाम दिया ‘दीदी माँ’।

उन्होंने कहा कि दुनिया तुमको दुर्गा और चण्डी के रूप में जानती है। तुम हमेशा क्रोध में रहती हो ऐसा लोग तुम्हें जानते हैं पर जब मैंने तुम्हें नजदीक आकर देखा तो लगा कि वो नन्हें-नन्हें बच्चे तुम्हारे आस-पास हैं, किलकारियां तुम्हारे आस-पास हैं, सहजता और सरलता तुम्हारे आस-पास है तो फिर ये प्रकट क्यों नहीं होनी चाहिए?’ ऐसा कहते हुए उन्होंने ‘हस्तिनापुर’ में दस एकड़ जमीन का जिक्र करते हुए कहा कि तुम वहाँ वात्सल्य ग्राम बनाओ। मैंने कहा -‘भैया, हस्तिनापुर नाम आते ही मन में महाभारत का आभास होने लगता है। एक उहापोह और द्वन्द्व प्रकट होने लगता है। यशोदा के आस-पास ही कन्हैया का जीवन था, तो फिर तय किया कि वृन्दावन में ही हम वात्सल्य ग्राम के स्वप्न को साकार रूप देंगे। फिर भावांे के इस जगत का निर्माण वृन्दावन की भूमि पर ही हुआ। भानुभैया ने कहा था -‘माँ, अपनी वात्सल्य ग्राम की निरन्तरता को छोड़ना मत।’ मैंने कहा कि -‘भैया, मैं जानती हूँ, छोड़ा तो वो जाता है जिसे गृहण किया गया हो लेकिन जो स्वभाव है वो कभी नहीं छूटता। हाँ, कभी देश अगर पुकारे तो अपनी भूमिका अवश्य निभानी होती है। निश्चित रूप से वो स्वभाव नहीं है वो निश्चित रूप से देश के प्रति हमारी भूमिका रही। पहले भी रही, देश पुकारेगा तो फिर रहेगी। पर मैं तो स्वभाव में विराजमान हूँ, सातत्य जिन्दगी का सच होता हैं। नदी बार-बार सागर सेे मिलती है। सागर कहता है मैं तो खारा हूँ और तू मीठी। आखिर कब तक मुझसे आकर मिलती रहेगी? नदी ने कहा जब तक तू मीठा नहीं हो जाता तब तक तुमसे आकर मिलती रहूँगी। इस निरन्तरता को प्रवाह कहते हैं, ये प्रवाह ही निरंतरता है, इसीलिए भारतीयों की सन्तानें संतति कहलाती हैं। जो हमारी परम्परा की सतत् प्रवाहवान उस परम्परा की संवाहक बनती हैं वही तो संततियां होतीं हैं। और आप भी तो संतति के रूप में यहाँ विराजमान हो उस तेजस्विता की उस ओज से भरी पत्रकारिता की संतानों को कैसी होना चाहिए?

आज आप यहाँ सुन रहे हो, कि संकट कितना बड़ा है? उधर क्या हो रहा है, उधर क्या हो रहा है, किसी और से पता करना पड़ रहा है क्योंकि जो सुना और दिखाया जा रहा है उस पर भरोसा नहीं हो रहा। और किसी समाज के लिए सबसे बड़ा संकट तब खड़ा होता है जब एक तो प्रमाणिकता भंग हो जाए और दूसरा जो लिखा और बताया जा रहा है उस पर से भरोसा उठ जाए। तब समाज की स्थिति क्या होगी? क्या आने वाले समय में हम निश्चित करेंगे कि हमारी लेखनी प्रमाणित होगी, कैसे होगी? जब हम प्रमाणित होंगे। जब प्रलोभ हमें प्रलोभित करेगा, जब लालच में विदेश जाने की यात्रा चित्त को आकर्षित करेगी, जब स्वर्ण के भंडार हमारी चित्त चेतना में हलचल पैदा करेंगे या तो फिर कुछ बिगाड़ दिये जाने का भय मन में होेगा।

भानु भैया कहते थे कि भारत भय और माया की मृग मरीचिका में से गुज़र रहा है। इस भय और प्रलोभन से जो पत्रकारिता मुक्त होती है, वही भानु भैया की तरह चाँदनी बनकर सदैव चमकती रहती है। हाँ, सŸाा पर विराजमान लोगों की आरतियाँ उतरती हैं। हाँ, भानुप्रताप जी जैसे लोगों को संगठन और संस्थाओं के माध्यम से अलग-थलग करने के प्रयत्न भी होते हैं। मैं यह भी मानती हूँ कि मन में आई हुई पीड़ा शरीर में कैंसर जैसा रोग भी बन जाती है। पर किसी भी पत्रकार को इससे भी ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती है तब कहीं जाकर सत्य की संस्थापना हो पाती है। तब यह लगता है कि आज से तीस साल पहले भी लिखा हुआ आज के लिए ही कहा था।
भानुप्रताप शुक्ल उस आभा, उस ओज, उस तेज के धनी थे जिससे आज हम सब आलोकित हो रहे हैं। निश्चित रूप से कोई देश अपनी भूमि से महान नहीं होता बल्कि वहाँ रहने वाले देशवासियों की भूमिका के कारण महानता के शिखर छूता है।

 मैं विद्यार्थियों से कहना चाहती हूँ कि लकडि़यां जब चूल्हे में जलती हैं तो जलकर उनका क्या होता है? राख बन जाती हैं, उससे या तो बर्तन मांजे जाते हैं या उनसे मल-मूत्र ढँक दिया जाता है। लेकिन वही लकडि़यां जब हवनकुण्ड की समिधा के साथ, उस आग में भी जलतीं हैं तो जलकर राख नहीं बनतीं, फिर वे विभूति बनती हैं, भस्म बनती हैं। यतियांे के माथे का सिंगार बनतीं हैं अथवा शंकर के माथे पर आरूढ हो जाती हैं। कदाचित् पत्रकारिता का जगत अपने को समिधा बनाए, और राष्ट्र निर्माण के यज्ञ में स्वयं को होम करे तो आने वाला कल सुरभित होगा, आभा से युक्त होगा। प्रणाम है, उनका भावभीना स्वागत करती हूँ और आशा करती हूँ कि आने वाले कल में उसी ओज और तेज के साथ

सच चाहें जितना कड़वा हो,
धँस जाए तीर सा सीने में
सुनने वाला तिलमिला उठे,
लथपथ हो जाए पसीने में।  

सच कड़वा ही होता है लेकिन शास्त्र कहते हैं कि सच को किस तरह रखा जाना चाहिए उसके पीछे सकारात्मक सोच होनी चाहिए। बहुत बार सच आग बनकर फैलता है कदाचित् सच यज्ञ कुण्ड की खुशबू बनकर फैले। बहुतों का भला होता है, बहुतों का कल्याण होता है माँ भारती ऐसे तेजस्वी पुत्रों का इन्तज़ार करती है।

भानुभैया ने मुझसे कहा था कि माँ, मैं विदा नहीं हो सकता। शरीर जर्जर हो गया है लेकिन देश का काम अधूरा है, इसलिए माँ मैं लौटूँगा, ज़रूर लौटूँगा। और मुझे लगता है कि इतने सारे तरूण पत्रकारों के बीच में मेरे भानु भैया ही लौट आए हैं। काश उनका दर्द आपका दर्द बने और काश उनके दर्द की दवा भी आप ही बन जाएं।

- दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा
- 13 सितम्बर 2013, पत्रकारिता समारोह, वात्सल्य ग्राम

Monday, October 7, 2013

परमशक्ति पीठ शाखा बाड़मेर में हुआ वात्सल्य सेवा केन्द्र का लोकार्पण

परमशक्ति पीठ शाखा बाड़मेर में दिनांक 22 सितम्बर 2013 को परम पूज्या दीदी माँ जी के कर कमलों द्वारा वात्सल्य सेवा केन्द्र का लोकार्पण समारोह सम्पन्न हुआ। 6000 वर्ग फुट के निर्माणाधीन इस भवन के भूतल का निर्माण कार्य लगभग पूर्ण हो चुका है और प्रथम तल निर्माणाधीन है।

वात्सल्य सेवा केन्द्र का उद्देश्य आर्थिक रूप से अक्षम परिवार की बेटियों को औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ स्वावलम्बी बनाने हेतु व्यावसायिक शिक्षा जैसे- सिलाई-कढ़ाई, कम्प्यूटर कोर्स, गृह उद्योग प्रशिक्षण इत्यादि की भी समुचित व्यवस्था करना है। इसके साथ ही इस केन्द्र में बालिकाओं के व्यक्तित्व विकास हेतु शारीरिक, आध्यात्मिक शिक्षा जैसे ध्यान, योग, प्राणायाम, आत्म सुरक्षा हेतु भी प्रशिक्षित किया जाएगा।

Wednesday, September 25, 2013

स्नेहभरा सहारा उत्तराखंड वासियों की प्राथमिक आवश्यकता

‘भयानक प्राकृतिक आपदा से बिखर चुके उत्तराखंड के अनेक गांवों में चारों ओर से राहत सामग्री का पहुंचना जारी है। मैंने पहाड़ी रास्तों पर से गुजरते हुए कई स्थानों पर देखा कि बच्चे धीरे-धीरे चल रही गाडि़यों की पीछे दौड़ते हैं। अपने दोनों हाथ फैलाये हुए उन्हें देखकर मन दुःख से भर उठता है। हर कोई उन्हें आकर कुछ न कुछ देता है। भय इस बात का है कि इस त्रासदी के बाद लगातार चल रहा राहत अभियान कहीं उन बच्चों को ‘याचक’ मनोवृति से न भर दे। अपने कठिन परिश्रम के दम पर पहाड़ों की विषम परिस्थितियों में जीने वाले ये स्वाभिमान गिरिवासी कहीं दीन-हीन भावना से न भर उठें, अपने राहत कार्यों के दौरान हमें इन बातों का भी विशेष ध्यान रखना होगा। हम यदि किसी को रोटी दे रहे हैं तो यह बहुत अच्छी बात है लेकिन यह भाव तब और भी सुन्दर रूप ले उठेगा जब हम उसे रोटी कमाने लायक बना दें।

    हमने तय किया कि इन प्रभावित इलाकों में जहाँ भी जिसे जैसी जरूरत होगी उसे वह सामग्री या सहायता प्रदान करेंगे लेकिन सर्वोच्च प्राथमिकता होगी उन लोगों को अपने पैरों पर खड़ा करने की जिनका सबकुछ छिन चुका है इस विपति में। परमशक्ति पीठ के माध्यम से हम बच्चों की अच्छी शिक्षा व्यवस्था करेंगे। पति या बच्चों के बिछोह से दुखी महिलाओं को सहानुभूतिपूर्वक उस दुःख से निकालकर हम वात्सल्य सेवा केंद्रों के माध्यम से स्वाभिमानपूर्ण स्वरोजगार की ओर अग्रसर कर रहे हैं।

    मैंने उत्तराखंड में अपने बच्चों से बिछुड़ गई माँ की ममता को तड़पते देखा है। रोज रात को अपनी माँ की गोद में सिर रखकर, उसका हाथ पकड़कर उसकी लोरियां सुनते हुए सो जाने वाले बच्चों को अपने माता-पिता की याद में बिलखते देखा है। बहनें, भाईयों की याद में तड़प रही हैं और भाई जंगलों में, घाटियों में अपनी बहन को तलाश रहे हैं। अनकहे दर्द से सारी केदारनाथ घाटी चुपचाप आंसू बहाती है दिन रात। जो बिछुड़ गए अब उन्हें तो नहीं मिलाया जा सकता लेकिन हाँ उनकी पीड़ा को हम सभी मिलकर कम जरूर कर सकते हैं। हमने परमशक्ति पीठ के माध्यम से दानदाता बंधु-भगिनियों से आव्हान किया है कि वे हमारे इस अभियान के माध्यम से पीडि़त मानवता की सेवा में आगे आएं। यह बताते हुए प्रसन्नता है कि दुनिया भर से हमारे इस कार्य को लोगों ने केवल सराहा ही नहीं बल्कि अपना भरपूर सहयोग भी प्रदान किया है।
- दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा

Monday, September 23, 2013

क्यों कुपित है प्रकृति?

मैं विज्ञान का विरोध नहीं करती क्योंकि वह तो नैसर्गिक रूप से ही प्रकृति में चारों ओर विद्यमान है लेकिन ऐसा विज्ञान जो प्रकृति से खिलवाड़ करने लगे, हमें क्या किसी भी समझदार मनुष्य को स्वीकार्य नहीं होगा। हम आधुनिक विज्ञान की चकाचैंध में अपनी लोक मान्यताओं को दकियानूसी नहीं मान सकते। आज धर्म और विज्ञान का जो संघर्ष दिखाई देता है वह प्राचीन भारत में नहीं था। क्योंकि तब विज्ञान को धार्मिक कृत्यों के साथ जोड़ा गया था। तब आज की तरह धर्म को व्यापार बनाने की होड़ नहीं थी। हमारे सभी ऋषि-मुनि मूलतः वैज्ञानिक थे। उस समय उनके द्वारा किए गए वैज्ञानिक अनुसंधानों तथा धारणाओं को सामान्य लोगों तक पहुंचाने मंे सहायक प्रसार माध्यमों का अविष्कार नहीं हुआ थी। इसीलिये उन्हें नित्यप्रति दैनिक जीवन से जोड़ने के लिए धर्म का सहारा लिया गया। उन्होंने बताया कि मानव मूलतः पूर्णरूपेण प्रकृति द्वारा नियंत्रित है, उसकी सभी आवश्यकताएं भी वही पूर्ण करती है इसीलिए उसे माता का दर्जा दिया गया। वृक्ष हमें प्राणवायु देते हैं, इसीलिए उनमें देवताओं का वास माना गया। नदियां हमें जीवन जल देती हैं इसीलिए उन्हें माता माना गया। भारतीय मनीषा में धरती के कण-कण में ईश्वर का वास माना गया क्योंकि इस धरती पर सबकी अपनी महत्ता है।

आज चारों ओर बहस इस बात पर हो रही है कि कि धर्म बड़ा या विज्ञान? आज हम जिस युग से गुजर रहे हैं उसमें तकनीकी योगदान को नहीं भुलाया जा सकता। लेकिन विचार की बात यह है कि आज से हज़ारों वर्श पहले भी तो विज्ञान था। श्री केदारनाथ मंदिर के इतिहास में जाने पर यह मालूम होता है ज्ञात इतिहास में 9 वीं शताब्दी के आसपास उसका जीर्णोद्धार आदि जगद्गुरु शंकराचार्य जी ने करवाया था। अभी हाल की विभीशिका में इस मंदिर के आसपास के लगभग सारे भवन तिनकों के समान जलप्रलय में बह गये लेकिन मंदिर का मुख्य भवन जस का तस टिका रहा। यह वर्णन भी मिलता है कि 14 वीं शताब्दी में जब धरती पर एक छोटा हिमयुग चल रहा था तब केदारनाथ मंदिर की वर्तमान इमारत 400 वर्श तक बर्फ में दबी रही! आप कल्पना कीजिए कि उस समय शिल्प विज्ञान कितना उन्नत रहा होगा जिसने इतना मजबूत भवन बनाया जो ग्लेशियरों में दबकर भी सैकड़ों वर्ष तक सुरक्षित रहा। हज़ारों-लाखों वर्श पूर्व क्या तब विज्ञान नहीं था जब हमारे ऋशि-मुनियों ने ग्रह-नक्षत्रों की सटीक गणना कर खगोलशास्त्र की रचना की। कहने का आशय है कि हमारी एक भी मान्यता ऐसी नहीं है जो विज्ञानसम्मत ना हो।

केदारनाथ त्रासदी की बाद एक बहस और चली कि उसी क्षेत्र में बन रहे एक बांध के बीच में आ रही धारीदेवी की प्रतिमा को योजनाकारों ने बिना किसी आवश्यक अनुष्ठान आदि के वहां से हटाकर अन्यत्र स्थापित करने का प्रयत्न किया।  16 जून 2013 को शाम साढ़े सात बजे देवी की वह प्रतिमा वहां से हटाई गई और उसके तुरंत बाद ही यह जलप्रलय हो गई। इस धार्मिक कारण का खण्डन कर रहे तमाम वैज्ञानिकों से मैं दृढ़तापूर्वक कहना चाहती हूँ कि भारत ही नहीं बल्कि विश्व के कई विकसित देशों में भी लोकमान्यताओं को महत्व दिया जाता है। आज भी हमारे देश के ऐसे पहाड़ी और अभावग्रस्त इलाकों में जहाँ चिकित्सा की प्राथमिक सुविधाएं ही नहीं वहाँ उस गाँव में पूजे जाने वाले देवी-देवता ही उनके रक्षक होते हैं, उन्हें रोगों या प्राकृतिक आपदाओं से बचाते हैं।
यदि इस तर्क को न माना जाये और विज्ञान पर ही विश्वास किया जाये तो हम पायेंगे कि भूवैज्ञानिकों द्वारा भी बरसों से चेतावनियां दी जाती रही हैं कि केदारनाथ धाम के मुख्य मंदिर की पश्चिमी पट्टी पर किसी भी भवन का निर्माण वास्तुविरुद्ध है। वह हिमालय के प्राकृतिक जल बहाव का क्षेत्र है। यही अनुसंधान उस युग का भी है जब आज का तथाकथित विज्ञान नहीं जन्मा था। विकास के नाम पर उस पुरातन मान्यता की अनदेखी के परिणामस्वरूप हजारों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। कुछेक बातों को छोड़ दिया जाये तो हमारी लगभग प्रत्येक मान्यता विज्ञान आधारित ही है।

 मैं वैज्ञानिक विकास का विरोध नहीं करती लेकिन मैं उस प्रगति के विरुद्ध हूं जिसे प्रकृति के साथ बलात्कार करके हासिल किया गया हो। केदारनाथ की त्रासदी बेशक दुखद है लेकिन यह मनुश्य द्वारा विकास की अंधाधुंध दौड़ में प्रकृति से छेड़छाड़ के विरुद्ध एक सीमित चेतावनी भी है। वृक्ष धरती माता के वस्त्र हैं, हम उनकी कटाई करके केवल उसे नग्न ही नहीं कर रहे बल्कि अपने लिए विनाश को आमंत्रित भी कर रहे हैं। विज्ञान के दंभ पर फूलकर हम धरती लांघकर चांद पर जा बसने की तैयारी कर रहे हैं। हम क्यों ये कोशिश नहीं करते कि हमारी यह धरती माता ही चांद से सुंदर बन जाये।

स्मरण रखियेगा कि देवालय शक्तिस्थल होते हैं। वहां जाकर हमें एक नई जीवनी शक्ति अर्जित होती है। भारत के जितने भी सिद्ध और महापुरुश हुए वे अपने जीवन में एक ना एक बार हिमालय जरूर गए। वहां जाकर उन्होंने जप-तप किया फिर नीचे आकर जनता को अपना मार्गदर्शन दिया। देवों की इस तपोभूमि को आज हमारी नवागत पीढ़ी ने रंगभूमि बना दिया है। किस दिशा में जा रही है आज हमारी युवा पीढ़ी? आज इन महान तीर्था में हम दर्शन करने नहीं रंजन करने जाते हैं। यह विभीशिका हमारे ही दुश्कर्मों के द्वारा प्राकृतिक आपदा का भयानक रूप धरकर हमारे ही सामने खड़ी हुई है। पूरा हिमालय क्षेत्र देवाधिदेव महादेव की तपस्थली है। वही महादेव जो विश को अपने कंठ में धारण कर जगत को अमृत बांटते हैं। हिमालय दर्शन को अवश्य जाइये लेकिन अपना प्रदूशण पीछे मत छोड़कर आइए। हिमालय को हिमालय ही रहने दीजिए जहां से जीवन की धारा बहती है।

- दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा 

Tuesday, September 10, 2013

निष्काम कर्म ही सेवा कार्य की ऊर्जा है

उत्तराखण्ड में परमशक्ति पीठ ने राहत के जो कार्य आरंभ किए हैं। जब हमने यह संकल्प किया था तब मैं अकेली थी लेकिन आज मुझे यह कहते हुए यह गर्व होता है कि आज इस कार्य में मेरी गुरु बहनें, मेरी शिष्याएं और समाज के अनेक बंधु-भगिनी लगे हैं। और सबसे बड़ी कृपा तो मेरे पूज्य गुरुदेव जी की है। हरिद्वार स्थित गुरुदेव के आश्रम को हमने सबसे पहला आधार शिविर बनाया जहां से उत्तराखण्ड पीडि़तों के लिए राहत सामग्री भेजी गई।

मुझे यह कहते हुए भी अति प्रसन्नता है कि हमारे श्री जयभगवान जी अग्रवाल ने आपदा प्रभावितों के लिए बहुत बड़ा सामग्री संग्रह दिल्ली से किया। गृहस्थी की जरूरतों का कोई भी ऐसा सामान नहीं बचा था जिसे उन्होंने हरिद्वार स्थित परमशक्ति पीठ के आधार शिविर पर भेजने में कोई कसर छोड़ी हो। उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था फिर भी उनके मन के उत्साह ने उन्हें फिर से कर्तव्य के मैदान में खड़ा किया। क्योंकि जयभगवान जी किसी भी शुभकार्य में सहयोग के लिए कभी इंकार कर ही नहीं सकते।
     
मैं अपने गुरुदेव पूज्य युगपुरुष जी महाराज के पावन श्रीचरणों में भी कोटि-कोटि प्रणाम करती हूं जिन्होंने हरिद्वार के आश्रम में स्वयं उत्तराखंड वासियों के लिए जाने वाली राहत सामग्री की एक-एक वस्तु को स्वयं देखा और कार्यकर्ताओं को अपना पावन मार्गदर्शन दिया। जब मैं आपदाग्रस्त क्षेत्रों को स्वयं देखने के लिए संजय भैया  जी के साथ हरिद्वार से निकल रही थी तब गुरुदेव ने हंसकर कहा कि -‘ऋतंभरा तुम्हारा शरीर इतना भारी है, तुम कैसे चढ़ पाओगी उत्तराखण्ड के पहाड़ी गांवों तक?’ मैंने कहा -गुरुदेव, आपकी कृपा से मेरा संकल्प भी तो भारी है। मेरा शरीर उसपर भारी नहीं पड़ेगा।’
    
इस कार्य को आरंभ करते हुए मैंने अपनी छोटी-छोटी साध्वी शिष्याओं में अपार उत्साह देखा। जब वो उत्तराखंड के वात्सल्य सेवा केंद्रों की ओर प्रस्थान कर रही थीं तब उन्होंने मुझसे कहा -‘दीदी मां जब उन पहाड़ों पर चारों ओर मौत बरस रही हो तो शायद हमें थोड़ा भय लगेगा। उस समय हम क्या करें? मैंने कहा -‘उस समय इन पंक्तियों को गुनगुनाना…
"वो देखो पास खड़ी मंजिल
इंगित से हमें बुलाती है
साहस से बढ़ने वालों के
माथे पर तिलक लगाती है
साधना कभी ना व्यर्थ जाती
चलकर ही मंजिल मिल पाती
फिर क्या बदली, क्या घाम है
चलना ही अपना काम है.. "
      
मैनें उन्हें कहा कि हमेशा उत्साह से भरे रहना। क्योंकि सेवा का कार्य तो एक गर्भस्थ शिशु जैसा होता है। जो तिल-तिल बढ़ते हुए फिर एक दिन जन्मकर एक फल के रूप में सामने आता है। और हमेशा स्मरण रखना कि जो दिल महत्वाकांक्षाओं से मुक्त होता है वही सेवा में तत्पर होता है। कदाचित व्यासपीठों के आकर्षण बहुत बार सेवाधारियों को भी विचलित करते हैं। क्योंकि यश और कीर्ति ऐसी चीजें हैं कि लोग कंचन और कामिनी को तो छोड़ देते हैं किन्तु प्रसिद्धी की चाह को छोड़ पाना बहुत मुश्किल है। हां यह अलग बात है कि जब भी कहीं कोई फूल खिलता है तो उसकी खुशबू तो अपने आप ही फिजाओं में फैलती है। मैं परमशक्ति पीठ ओंकारेश्वर को संचालित करने वाली अपनी गुरुबहने साध्वी साक्षी चेतना दीदी को बहुत धन्यवाद देती हूं जिनके संरक्षण में रहीं हुई मेरी अनेक छोटी-छोटी शिष्याओं उत्तराखण्ड की दुर्गम परिस्थितियों में सेवाकार्य कर रही हैं। साध्वी शिरोमणि जी ने सबसे पहले सेवाकार्यों की कार्ययोजना पर काम किया। बहन विचित्र रचना ने भी अनेक दुर्गम पहाड़ी गांवों तक जाकर राहत कार्यों में अपना योगदान दिया जो अब भी वहीं हैं।
     
जब हमने उत्तराखण्ड त्रासदी पीडि़तों के लिए अपने राहत कार्य चलाने की योजना सोची तो सबसे पहले हमारे परमशक्ति पीठ आफ अमेरिका के बंधु श्री रक्षपाल जी सूद के नेतृत्व में वहां की टीम सक्रिय हुई। वो बोले कि दीदी मां हम सबसे पहले इस कार्य के लिए अपना योगदान देंगे। उनकी उस टोली के सदस्य श्री बालू जी आडवाणी एक लाख डाॅलर लेकर भारत आए और विगत गुरुपूर्णिमा के अवसर पर उन्होंने वह राशि उत्तराखण्ड आपदा राहत के लिए परमशक्ति पीठ के लिए मुझे भेंट की। हम सब हदय से उनके आभारी हैं।
    
सबसे पहले हमने यह सोचा कि इस आपदा में अनाथ हो गए बच्चों या महिलाओं को वात्सल्य ग्राम लाया जाये लेकिन गढवाली लोग किसी भी हाल में अपने गांव से पांच-सात किलोमीटर से आगे जाते ही नहीं। तो हमने विचार किया कि हम स्वयं चलकर उनके पास जाएंगे। यानि कुआं प्यासे के पास जायेगा। और फिर हमने गुप्तकाशी और उखीमठ में ‘वात्सल्य सेवा केंद्रों’ का संचालन आरंभ किया। मुझसे जुड़े हुए सभी लोग तन्मयापूर्वक इस पुण्यकार्य में सहयोग दे रहे हैं। मैं सोचती थी कि किसी भी कार्य में राजा उदार और प्रशासक कठोर होना चाहिए लेकिन कल पूज्य गुरुदेव कह रहे थे कि अगर व्यवस्थाओं के दौरान भावनाओं का ख्याल ना रहें तो व्यवस्था बेकार है और यदि केवल भावनाएं हों और व्यवस्थायें ना हों तो वो भी बेकार है। इसलिए हमें भावनाओं और व्यवस्थाओं दोनों को संतुलित करते हुए अपने कार्यों को गति प्रदान करनीं है।

- दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा 
सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, सितम्बर 2013 

Tuesday, August 13, 2013

दर्द का सैलाब जिसे मैंने अपनी आंखों से देखा...

‘टूट चुकी सड़कों और कभी भी भरभराकर गिर पड़ने वाले पहाड़ी मलबे के बीच से होकर हम उत्तराखण्ड के उन गांवों की ओर बढ़ रहे थे जहाँ कई जिंदगियाँ असमय मृत्यु की भेंट चढ़ चुकी थीं। हमने देखा कि इन गांवों में हलचल के नाम पर केवल करुण स्वरों का विलाप था जो दिल को भीतर गहरे तक चीर कर रख देता था। कुछ गांवों के तो सारे पुरुष चाहे वो पति हो या बेटे, सभी उस रात हुई अनायास जल प्रलय में समा गए थे। तूफानी वेग से बहकर गुजर रही किसी पहाड़ी नदी के पास खड़े होकर विलाप करती हुई माँ जब उस नदी से अपने बेटे का शव मांगती है तो कलेजा जैसे बैठ सा जाता है। एक माह से अधिक बीत चुका...अब कोई संभावना नहीं कि अपना खोया हुआ वापिस आएगा लेकिन सूनी आंखें अब भी पहाड़ की ओर टकटकी लगाकर देखती हैं कि शायद पति या बेटा कहीं से घर लौट आए। आशा और निराशा के बीच झूलती जिंदगी मृत शरीर सी बिस्तर पर पड़ी हुई त्रासदी को भोग रही है...मैंने देखा है दर्द के उस सैलाब को अपनी आंखों से जो अब भी मौजूद है उत्तराखंड की पहाडि़यों में’

वो पहाड़ जो हमेशा से उनकी जिंदगी रहे हैं, आज उनके उन शिखरों को देखकर उन्हें सिहरन होती है जहां से पत्थर दिल मौत बरसी थी। टूटे रास्तों पर घायल पड़ी जिंदगियां राहत का रास्ता देख रही हैं। सारे देश के दिल को उत्तराखंड आपदा ने दहला दिया है। देशवासियों ने दिल खोलकर राहत कार्यों में योगदान दिया है लेकिन इस वक्त की जरूरत है घायल दिलों पर अपने स्नेह के लेपन की। अपनों को खो देने का दर्द जीवन भर सालता रहता है। आहत दिलों को अपनेपन के दुलार से राहत की जरूरत है। उत्तराखंड के दूरदराज पहाड़ों में कई गांव ऐसे हैं जहां लगभग हर घर से कोई न कोई पुरुष इस आपदा में काल कवलित हुआ है। इन तमाम गांवों में महिलाओं की आंखों में गहरा सूनापन है..प्रतीक्षा है उन अपनों की जो शायद कभी लौटकर नहीं आएंगे।
 
लगभग टूट चुके खतरनाक रास्तों और गिरते हुए पहाड़ी मलबे के बीच इन आहत दिलों को सहलाने के लिए निकल पड़ी दीदी मां साध्वी ऋतम्भरा जी गहरी संवेदनाओं से भरी हुई हंै। अपने तमाम नियमित कार्यक्रमों को निरस्त कर उन्होंने उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में जाकर आपदा पीडि़तों को गले लगाया। उनकी उन सभी जरूरतों को पूरा करने का वादा किया जिनको पूरा करने का प्रयत्न करते-करते चारधाम यात्रा मार्ग में उनके पति या पुत्र मारे गए।
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मैं ऐसे ही एक गांव ल्वारा तहसील ऊखीमठ के एक घर में गई जहां.एक साधनहीन छोटे से किसान श्रीपुरुषोत्तम शुक्ला के घर में मातम पसरा पड़ा है। इस घर के दो बच्चे हेमन्त शुक्ला और अजय शुक्ला आज तक लापता हैं। मैं जब उनके आंगन में गई तो वहां की नीरवता चीत्कारों से गूंज उठी। उन बच्चों के मूक-बधिर पिता के मुंह से शब्द तो नहीं निकले लेकिन आंखों से झरते आंसू उनके हदय की पीड़ा को बयां कर रहे थे। मां सरस्वती देवी की आंखें अपने दोनों बच्चों की प्रतीक्षा मंे पथरा गई थीं। बच्चों की मौसी मुझसे लिपटकर चीत्कार करती हुई बोली -‘मां, सारे गांव के बच्चे एक-एक कर लौट आए लेकिन बस हमारे ही बच्चे नहीं लौटे। सब दिलासा देते हैं कि वो पहाडों में ही कहीं होंगे। कहां गए हमारे बच्चे?’ रोते-रोते उनका गला सूख गया। मैंने जब बच्चों की मौसी को पानी पिलाना चाहा तो उसका कुछ पलों के लिए रुका रुदन फिर से फूट पड़ा -‘क्या पानी पिउं मां, हमें पानी पिलाने वाले ही चले गए।’ पिता बोल-सुन नहीं सकता, मां स्तब्ध है और मौसी का चीत्कार दिल को दहला देता है। अपनी युवा बहन रंजना शुक्ला की शादी का सपना संजोये दोनों भाई कुछ कमाने के लिए निकले थे। उन्हीं तैयारियों में बड़े उत्साह से मकान बनवाना शुरू किया था। छत पड़ने ही वाली थी और आसमानी आफत ने घर आंगन की नींव को दरका दिया। बनते हुए मकान में बल्लियां अभी भी वहीं टिकी हुई इंतजार कर रही हैं कि उनके दमपर छत भरी जायेगी लेकिन माता-पिता के जीवन के सहारे ढह गए। उनकी लाशें नहीं मिलीं लेकिन एक माह बीत जाने के बाद जैसे उनकी उम्मीदें भी अब आंसुओं के सैलाब में बहती जा रही हैं। माता-पिता और मौसी का क्रंदन तथा बहन के चेहरे की बेनूरी ने मेरे दिल को झकझोर कर रख दिया। उनके साथ मैं भी उस सूने आंगन में देर तक बैठी रोती रही। अपने मन के पक्के संकल्प के साथ मैंने उनसे वादा किया कि हम आपके बेटों को तो वापस नहीं ला सकते लेकिन निश्चित रूप से आपकी इस बेटी की शादी का सारा खर्च परमशक्ति पीठ वहन करेगा।

समझ नहीं आता कि अपनों के बिछोह से पीडि़त लोगों को कैसे सांत्वना दी जाये, कैसे उन्हें संभाला जाये? मुझे लगा कि इस समय इन लोगों को राहत सामग्री के साथ ही स्नेह लेप की जरूरत भी है जो इनके मन के गहरे घावों को भर सके। मैंने परमशक्ति पीठ की अनेक साध्वी बहनों को इस कार्य के लिए उत्तराखंड भेजने की योजना बनाकर उसे मूर्तरूप देने की शुरूआत की है जो इस कार्य को सम्पन्न करेंगी। वे उन महिलाओं तक पहुंचने का पूरा प्रयत्न कर रही हैं जिनके पति या बेटे इस आपदा में या तो लापता हैं या मृत हो चुके हैं। संस्था से जुड़े हमारे भाई क्षतिग्रस्त हुए गांवों की नुकसानी का आकलन करेंगे और वास्तव में जिन्हें आवश्यकता होगी उन तक सहायता सामग्री पहुंचाएंगे। यह कार्य लंबे समय तक चलाये जाने की आवश्यकता है और बहुत व्यापक स्तर पर इसमें समाज के सहयोग की आवश्यकता होगी। मैं सभी देशवासियों से अपील करती हूं कि वे परमशक्ति पीठ को इस पुनीत कार्य में सहयोग देकर उत्तराखण्डवासियों की सहायता करें। 

वहां चारों तरफ बस भय ही भय है। मृत्यु के इस भय के बीच में जिंदगी कैसे जी जाती है यह पहाड़ों के बीच बसे इन गांवों में देखा जा सकता है। अजीब-अजीब सी घटनायें घट रहीं हैं। दर्द से कराह रही देवभूमि के दर्शन की इस यात्रा के अंतिम दिन हम जिस मकान में रुके थे, आधी रात के बाद उसके पास स्थित मकान से भयंकर विस्फोट की आवाज सुनकर हम लोग बाहर निकले। पास के मकान की छत उड़ चुकी थी, उसकी दीवारें चारों ओर बाहर की तरफ बिखरी हुई थीं। सौभाग्य की बात थी कि उस घर में कोई जनहानि नहीं हुई। हमने पता किया कि कहीं कोई गैस सिलेण्डर का विस्फोट तो नहीं हुआ। लेकिन घर के लोगों ने अंदर किसी भी प्रकार के विस्फोट से इंकार किया। बाहर बारिश या मकान पर बिजली गिरने जैसी भी कोई घटना नहीं हुई थी। वह एक रहस्यमयी विस्फोट था जिसने उस मकान के परखच्चे उड़ा दिए। इस घटना का आशय यह निकला कि वहां अभी भी प्रकृति कु्रद्ध है। पहाड़ों की टूटन जारी है।     
 
हमारी भारतीय संस्कृति, हमारी सभ्यता और हमारे संस्कार, प्रकृति के प्रति सहदय होने की प्रेरणा देते हैं। हमने अपने चित्त के अंदर जब भी परमात्मा को पाने की जिज्ञासु वृत्ति को देखा तो अनुभव किया कि नहीं हमें हिमालय की गोद में हरितिमा और प्रकृति जहां आनन्द और उत्सव के साथ अपने आपको प्रकट करती है वो देवभूमि वो देवलोक जहां हम अपने देह, मन और इन्द्रियों के साम्राज्य से परे, माया के जाल से मुक्त होकर उस परमात्म सत्ता को अनुभव कर सकते हैं तो सहज रूप से हमारे चरण उठते हैं देवभूमि हिमालय की तरफ। उत्तरांचल का वह क्षेत्र जहां बद्री भगवान अपनी विशालता को लिए हुए विराजमान हैं। नर-नारायण जहां नित्यप्रति तप-निरत हैं और केदारनाथ भगवान जहां अपने पूरे शिवत्व के साथ प्रकृति के उस अद्भुत और विहंगम दृश्यों के बीच विराजमान हैं। जहां गौमुख से निःसृहित होने वाली गंगा और यमुना मैया का उद्गम स्थान यमुनोत्री। ये चारधाम की यात्रा प्रत्येक भारतीय के हदय में एक चाह के समान होती है कि जिंदगी में कभी न कभी हमें ऐसे अवसर मिलें जब यह यात्रा कर सकें।

बहुत वर्षों पहले जब भारत में तीर्थयात्री यात्रा करता था तब उस यात्रा के पीछे तप की दृश्टि थी। साधना का मर्म था। परमात्मा को पाने की चित्त के अंदर जिज्ञासा थी। यात्री उस भावना के साथ यात्रा प्रारंभ करता था कि यदि अब लौट के नहीं भी आना होगा तो मन की पूरी तैयारी है इसके लिए। जीवन के उत्तरार्ध में, जीवन के चैथेपन में मोक्ष के द्वार पर दस्तक देने के लिए कोई भी जिज्ञासु, मुमुक्षु या भक्त केदारनाथ भगवान की शरण में जाता था। धीरे-धीरे आधुनिकता का प्रभाव हम पर हुआ और हम सुविधाभोगी जीवन जीने के आदी हुए। हम जीवन के ‘कम्फर्ट झोन’ में जीना चाहते हैं। तीर्थयात्रा में रहकर भी तीर्थत्व का भाव न रहते हुए जब मनोरंजन का भाव प्रबल हुआ तो फिर इस यात्रा का स्वरूप बदला। बड़ी संख्या में बाल-बच्चे और युवा जोड़े इन तीर्थयात्राओं की तरफ उन्मुख हुए। एक ओर तो यह बहुत संुदर लगता है कि हमारी युवा तरुणाई तीर्थयात्राओं पर जा रही है, लेकिन दूसरी ओर लगा कि इस यात्रा के पीछे जो यात्री का एक चित्त होता है, भगवान को पाने की अभिलाषा होती है वह नहीं थी। वर्षों पहले इस यात्रा में दुर्गम रास्तों और पर्वत श्रंृखलाओं के बीच में भीषण ठंड को झेलते हुए यात्री तप-निरत रहता था। मौन रहते हुए उस परम स्थिति को प्राप्त करने के लिए वह यात्रा एक साधना की तरह होती थी। अब वह समय बीत गया है। हम सब सुविधा में जीना चाहते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि यात्रा, यात्रा नहीं रह गई। तीर्थों में जाकर तीरथवास करने के भाव से हम कोसों दूर चले गए। दुष्परिणाम सामने है। प्रकृति कुपित हुई, देव कुपित हुए और हमने देखा कि कैसे मनुष्यता विवश होकर मंदाकिनी के प्रवाह में तिनकों की तरह बिखर गई। हमारी व्यवस्थायें बिखर गईं। हम अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं के जिन भवनों को मंदाकिनी के प्रवाह मार्ग में बनाकर बैठे थे वो ताश के पत्तों की तरह ढह गये। परिणामस्वरूप बहुत दण्ड भोगा। किसने भोगा यह दण्ड? सारे देश ने यह दण्ड भोगा लेकिन सबसे ज्यादा उन्होंने भोगा जिनका कोई दोष नहीं था। उन बहनों, उन देवियों का क्या दोष जिन्होंने अपनी मांग के सिंदूर खो दिए, अपने पुत्रों को खो दिया। मै इस दृष्टि से उत्तरांचल के प्रवास में आई कि मैं स्वयं वहां देखूं कि वहां क्या स्थिती है, हम कहां किस पीडि़त के साथ किस प्रकार से खड़े हो सकते हैं।
    
उत्तराखंड के उन गांवों में जाकर यह दर्दनाक बात पता चली कि दसवीं-बारहवीं कक्षाओं के अधिकांश बच्चे उस
जल त्रासदी में समा गए। माताएं प्रतीक्षा करती रह गईं अपने बच्चों की। देवियां अपने पतियों की प्रतीक्षा करती रह गईं। उनके रुदन, उनके विलाप चित्त को विव्हल करते हैं। उनके हदय से उठती हूक दिशाओं को भी क्रंदित कर देती है। हमारे जैसे साधु-साध्वियों का चित्त भी मौन हो जाता है। ढांढस के शब्द छोटे पड़ जाते हैं। इन सारी विडंबनाओं के बीच चिंतन चलता है कि हम कहां थे और आज कहां आ पहुंचे। अगर देखा जाये तो उत्तरांचल का जीवन ही अपने आप में एक त्रासदी है। केदारनाथ, उखीमठ और उत्तरकाशी के गांव-गांव मंे घूमते हुए मैंने अनुभव किया कि वहां कि प्रत्येक रात दुःखों और मुसीबतों से भरी हुई है। तेज बारिश कहीं हमारी छत को न बहा ले जाये। पहाड़ का मलबा कहीं हमारे पूरे घर को ही समेटकर नहीं में न गिरा दे, इन सारी आशंकाओं के बीच वहां के निवासियों की रातें कटती हैं। जाने कब बादल फट जायें और विपत्ति जाने किस रूप में जाने कब सामने आकर खड़ी हो जाये। यात्रा करते समय हमने देखा कि हमारे सामने ही पर्वत से एक बड़ा पत्थर टूटकर नीचे गिरा और वहां खड़े एक तरुण की मृत्यु उसके आघात से हो गई।
    
भय के बीच में जीवन कैसे जिया जाता है इसे मैं अभी उत्तराखण्ड में देखकर आई हूं। मन में चिंतन चल रहा है कि इन सारी परिस्थितियांे के बीच हम क्या कर सकते हैं मैं तो बस यही संभावनायें तलाश रही हूं। यहां मृत्यु को साक्षात नृत्य करते हुए मैंने देखा है जहां प्रत्येक व्यक्ति बस मृत्यु से ही घिरा हुआ हैै। मृत्यु के इसी तांडव के बीच जीवन को संभालना बस यही इंसानियत का गौरव और जीवन की धन्यता है।
    
मुझे लगता है कि कदाचित् हमने प्रकृति के साथ अपना सहधर्म निभाया होता तो शायद यह स्थिति नहीं आती। हमारी पूरी पूजा पद्धति, हमारी मान्यताएं, परंपराएं प्रकृति के साथ सहधर्म निभाने की पे्ररणा देती हैं। हमारे कर्मकाण्ड आप देख लीजिए जिसमें तुलसी है, दुर्वा है, पुष्प हैं, बिल्व पत्र हैं। प्रकृति के माध्यम से हम परमात्मा को प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे समय में जब हमारी महत्वाकांक्षायें सिर उठा रही हैं तब हम प्रकृति का दोहन-शोषण कर रहे हैं। मां के स्तन से दुग्ध का पान तो शोभा देता है लेकिन मां के स्तन से रक्त का पान करें यह निश्चित रूप से अशोभनीय है। हमने प्रकृति के साथ बिलकुल ऐसा ही व्यवहार किया है। उसके दोहन की सारी सीमाओं का अतिक्रमण हमने किया। परिणाम सामने है। 
    
हिमालय के शिखरों पर जहां भगवान केदारनाथ अपने विभिन्न रूपों में विराजमान हैं हमने इन पुण्यस्थलों को पिकनिक स्पाॅट बना डाला। भगवान शिवशंकर जहां शान्त भाव से तप-निरत रहते हैं हमारे कोलाहल ने निश्चित रूप से उसमें व्यवधान डाला है। लोग पहले वहां जाते थे और भगवान को प्रणाम करके लौट आते थे, एक नई ऊर्जा से भरकर। लेकिन आज वहां जाने कितने होटल बना दिए गए हैं। जब हम लंबे समय तक देवों या गुरु के पास रहते हैं तो उनके सम्मान में मर्यादायें बनाये रखना कठिन होता है।
    
शायद भगवान केदारनाथ को यात्रियों का यह अमर्यादित व्यवहार पसंद नहीं आया। वहीं पर मलमूत्र का त्याग करना, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करना, संभवतः यही दुराचरण इस विनाशलीला का कारण बना और भगवान ने एक ही क्षण मंे यह सब समेट दिया। प्रकृति ने हमें हमारी सीमायें बता दीं। अब समय आ गया है हमारे आत्मचिंतन का। विकास कैसा होना चाहिए इस पर चिंतन होना चाहिए। आज हिमालय में विकास के नाम पर चारों ओर डायनामाइटों के विस्फोट किए जा रहे हैं। एक विस्फोट होता है और चारों दिशाएं हिल जाती हैं। चारों ओर पर्वत शिखरों का क्षरण हो रहा है। हिमालय का मलबे में बदलना निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण है। हमारी व्यवस्थाओं में प्रकृति के प्रति संवेदना होनी चाहिए।
    
भारत ने सदैव कहा है कि त्यागपूर्वक भोगने में ही सुख है। जब त्याग जीवन का लक्ष्य नहीं रह जाता तब मनुष्य, मनुष्य नहीं रह जाता वह भक्षी बन जाता है। वह प्रकृति का भक्षण करता है, वह मर्यादाओं का उल्लंघन करता है, वह धर्म के द्वारा प्रदत्त मान्यताओं का भक्षण करता है। और जहां धर्म भी व्यापार जाये, जहां भगवान के सम्मुख खड़े होने के लिए भी तुम्हें दो नंबर के रास्ते तलाशने पड़ें, वहां दुर्भाग्य के अतिरिक्त फिर और कुछ हो ही नहीं सकता। पैसा दोगे तो फिर शार्टकट में भगवान के दर्शन हो जाएंगे। क्या भगवान केदारनाथ को यह स्वीकार होगा कि एक ओर तो जिनके पास पैसा नहीं है वह पसीने से लथपथ जनता घंटों तक पंक्ति में खड़ी रहकर उनके दर्शनों की प्रतीक्षा करे और आप धन के बल पर कुछ मिनटों में ही भगवान के सम्मुख पहुंच जायें। जिन्हांेने प्रकृति का अपमान किया वे मेरी मूर्ति की आराधना करने आ गए। नहीं भगवान को यह स्वीकार नहीं हुआ। और संभवतः उनका ऐसा भीषण तांडवी रूप हमारे सम्मुख आया है।
    
आने वाला समय कैसा होगा मैं यह बता नहीं सकती क्योंकि मैं भविष्यवक्ता तो हूँ नहीं लेकिन निश्चित रूप से उत्तराखण्ड के इस प्रवास ने चित्त को बहुत व्याकुल किया है। मैं घर-घर गई, गांव-गांव गई, एक-एक बहन को गले लगाया, उसकी आंखों के बहते अश्रु प्रवाह के आगे कदाचित मंदाकिनी का प्रवाह भी मद्धिम लगा। वह प्रवाह प्रश्न करता है कि आखिर हमारा क्या दोष था? ये किसके कर्माें का दण्ड हमें भोगना पड़ा? शब्द को ब्रम्ह कहा जाता है लेकिन शब्द ब्रम्ह से भी परे है उस अबला के दुःख को व्यक्त करना जो इस जगत में नितांत अकेली रह गई हो, जिसने अपने किशोरवय बच्चों को खो दिया हो, जिसकी पथराई हुई आंखें आज भी प्रतीक्षा करती हैं कि जाने कौनसे पहाड़ से उतरकर मेरा पुत्र मेरे घर-आंगन को महका देगा। ऐसी विलाप करती माताओं, बहनों और पत्नियों के बीच बैठकर ऐसा लगा जैैसे कि यदि कोई पत्थर भी हो तो शायद इनका दर्द अनुभव कर पिघल जाएगा। इन सबकी सहायता करने के लिए हमने ऊखीमठ और गुप्तकाशी में परमशक्ति पीठ वात्सल्य सेवा केंद्र स्थापित किए हैं जहां लगातार प्रवास करके हमारी साध्वी बहनें और कार्यकर्ता भाई प्रभावित क्षेत्रों का अध्ययन और उन्हें वांछित सहायता पहुंचाने का हरसंभव प्रयत्न करेंगे। उत्तराखण्ड के इन प्रभावित क्षेत्रों में लंबे समय तक कार्य करके वात्सल्य अपनी भूमिका निभायेगा।     
- दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा
सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, अगस्त २०१३

Thursday, August 8, 2013

हरि सुमिरन ही जितेन्द्रिय हो जाने का एकमेव मार्ग है

जब वस्त्र फट जाता है तो धनी व्यक्ति उसे फेंक देता है लेकिन गरीब अपने फटे हुए वस्त्रों को फेंकता नहीं बल्कि वह उनमें पैबंद लगाकर फिर से पहनने के उपयोग में लेता है। किन्तु यदि कभी आसमान फट जाये तो क्या आप उसमें पैबंद लगा सकते हो? आप कहोगे दीदी माँ यह तो संभव ही नहीं है। भला आसमान में पैबंद कैसे लगाया जा सकता है! मेरे बंधुओं और भगिनियों, कामना एक  ऐसा ही बादल है जिसके फटने पर आप पदार्थों का पैबंद लगाकर उसे ठीक करने का प्रयत्न नहीं कर सकते। चाहे जितना प्रयत्न कर लो लेकिन इच्छाओं और वासनाओं से कभी निवृति नहीं हो सकती। मृत्यु के समय जब देह छूट रही हो तब भी मनुष्य को तृष्णा नचाती है। आशा और तृष्णा पीछा नहीं छोड़तीं क्योंकि वो कभी नष्ट ही नहीं होतीं। बचपन के दिन अबोधपन में खो जाते हैं, युवावस्था को वासनाओं के चरणों में न्यौछावर किया और वृद्धावस्था चिंताओं को अर्पित हो गई। अब देह नहीं चलती, अब केवल चिंता है। जिनकी देह चलती है उनको उतनी चिंता नहीं है जितनी कि बुजुर्गों को है। यदि यहाँ पहुंचकर चिंता की बजाय चिंतन किया होता तो जीवन धन्य हो गया होता। जीवन में क्यों आए हो और जब मृत्यु नजदीक हो तो क्या करना है? यह सहज प्रश्न हैं जो लोगों के मन में उठा करते हैं। राजा परीक्षित ने भी शुकदेव जी से यही प्रश्न किया था तब शुकदेव जी महाराज ने कहा था कि तेरा यह प्रश्न लोकहित कारी है राजन्। यह केवल परीक्षित का ही प्रश्न नहीं बल्कि समस्त जीवों का प्रश्न है।  

सबसे पहली बात तो यह है कि जो नहीं बचेगा उसे भी देखो और जो बच जाएगा उस पर भी दृष्टि डालो। जो नहीं बचेगा वह दृष्टिगोचर हो रहा है, वह दृश्यमान जगत है। वह नहीं रहेगा, वह नहीं टिकेगा। हम गंगा का जल अंजुलि में भरकर उसे रोकने का प्रयत्न करते हैं और वह थोड़ी ही देर में अंगुलियों के बीच से बह जाता है। हम कहते हैं कि अरे अंजुलि का जल बह गया। अरे भाई, जब गंगा के किनारे ही बह गए तो भला यह अंजुलि भर जल कैसे रोक लोगे। जिसे जाना है, जिसे नष्ट होना है वह तो होगा ही। जीवन-मरण का यह प्रवाह अनादिकाल का शास्वत सत्य है। लोग अपने स्वजन-संबंधियों को अपने कंधों पर श्मशान तक छोड़कर आते हैं लेकिन कभी भी स्वयं की मृत्यु का चिंतन नहीं करते। दुनिया में जो लोग भी अपनी मृत्यु का चिंतन कर सके वे कभी भी विचलित नहीं हुए। लोग कभी-कभी बड़ी ही विचित्र चिंताएं करते हुए दिखाई देते हैं। मेरे पास कुछ बंधु आए जो श्मशान की बाऊंड्री वाल बनाने के प्रयास में चिंतित थे कि कैसे इसकी व्यवस्थायें जुटाई जाएं। मैंने कहा भाई बड़ी ही विचित्र चिंता है ये आपकी। निश्चित रहिये, श्मशान, श्मशान ही रहने वाला है उसपर कोई कब्जा नहीं करेगा क्योंकि उसमें जो रहते हैं वो बाहर नहीं आ सकते और जो बाहर हैं वो अपनी मर्जी से भीतर जाने की इच्छा नहीं रखते जब तक कि परमात्मा का बुलावा न आ जाये। न जाने कैसी-कैसी दुष्चिंताएं मन में पाले बैठे हैं लोग, देखकर आश्चर्य होता है। स्वयं के बचे रहने की चिंता करने का कोई अर्थ नहीं है बल्कि वह तो जीवन के आनन्द को ही नष्ट कर देती है।

सन्त सावधान करते हैं, जगाते हैं कि अपने स्वरूप में जागो और बंधनों से मुक्त रहो। आनन्दपूर्वक भगवान का भजन करो। जीवन में कुसंगों से हमेशा बचो। कुसंग ही है जो इस देहरूपी गाड़ी को पटरी से उतार देता है। मित्र बनाओ लेकिन इस बात का सदैव ख्याल रखो कि तुम्हारा साथी कहीं तुम्हें कुसंग की ओर न ले जाये। प्रतिदिन प्रातःकाल जागो और परमात्मा का धन्यवाद करो कि उसने तुम्हें आज की भोर देखने के लिए जीवित रखा। ध्यान में बैठकर अपनी देह को साधो, अपनी श्वांसों के प्रति सजग रहो। क्रोध में तुम्हारी सांसें धोंकनी की तरह चलती हैं। याद रखना जो जितनी तीव्र सांसें लेता है उसका जीवनकाल बहुत ही कम होता है। कुते की श्वास धोंकनी की तरह चलती है ना? वह कितने वर्ष जीता है? केवल 12 या 14 वर्ष लेकिन कभी कछुए को देखा। कभी-कभार ही श्वास लेने के लिए पानी के बाहर अपनी गर्दन निकालता है लेकिन कितनी लंबी आयु जीता है वह बरसों-बरस तक। श्वास गहरी हो तो जीवन लंबा होता है। श्वासों का नियमन करो और अपनी देह को, अपनी इन्द्रियों को साधो। आंखों से ही सबकुछ हमारे मन के भीतर प्रवेश करता है इसलिए सबसे पहले अपनी आखों को नियंत्रण में करो। आंखों से देखो नहीं दर्शन करो। हम आगरे का ताजमहल देखने जाते हैं तो सबसे कहते हैं कि हम आगरे का ताजमहल देखकर आ रहे हैं। लेकिन जब वृंदावन में बांके बिहारी जी के मन्दिर से लौटते हो तो सबसे क्या कहते हो? यही कहते हो ना कि हम बिहारी जी का दर्शन करके आ रहे हैं। बस यही फर्क है देखने और दर्शन करने में। अपनी दृष्टि का संयम करो। सृष्टि के हर नजारे का दर्शन वैसे ही करो जैसे शुद्ध भाव से परमात्मा का दर्शन करते हो। सारे जगत के हर प्राणी और हर वस्तु में भगवान के विग्रह का ही दर्शन करो। कानों से श्रवण करो। उन सत्संगों का श्रवण करो जो तुम्हारे जीवन को बदल देने की क्षमता रखते हैं। हाथों से केवल अपना श्रृंगार ही न करो बल्कि उनसे उन नन्हीं सूरतों की साज-सम्भाल करो जिन्हें उनके अपनों ने ही छोड़ दिया जीवन के दोराहे पर। देखो उनकी मुस्कुराहटें तुम्हारे जीवन को खुशियों से भर देंगी। ध्यान रखो कि तुम्हारे कदम मयखानों की दहलीज पर न जायें, अगर ऐसा हो तो तुरन्त ही सजग होकर उन्हें संयमित करो। परमात्मा के प्रेम अनुराग में डूबकर उन्हें विवश कर दो देवालयों की ओर उठने को। यही है इन्द्रियों को जीत लेने की कला और जिस दिन तुम यह कला सीख जाओगे बस उसी दिन जीवन में चमत्कार घटित होगा। फिर कोई पराया नहीं होगा, सब अपनी ही प्रतीत होंगे। फिर कहीं कोई ईष्र्या नहीं होगी तुम सबके प्रति अगाध स्नेह से भर उठोगे। फिर तुम आधा गिलास खाली है ऐसा नहीं कहोगे बल्कि तुम्हें आधा गिलास भरा हुआ प्रतीत होगा।
                                                                                                              - पूज्य दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा 
                                                                                                    सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, जनवरी 2013

Monday, August 5, 2013

परमात्मा स्वरुप हैं सदगुरुदेव...

जब वो मुस्कुराते हैं तो लगता है कि हम सबके लिए मोक्ष का द्वार खुल गया। हम बहुत सारे शिष्य-शिष्याएं हैं गुरुदेव के लेकिन सबका उनके साथ एक अलग तरह का बहुत ही खूबसूरत सा अंतरंग रिश्ता है। उस जगह को उनके सिवाय कोई और दूसरा भर ही नहीं सकता। उनकी सन्निद्धी में रहते हुए एक सुनिश्चित सुरक्षा का भाव मन में रहता है। गुरुदेव के लिये कुछ भी चयनित और चिन्हित नहीं होता। कई बार लोगों को लगता है कि गुरुदेव पात्रता देखते हैं। मेरा ऐसा अनुभव है कि वे कभी भी किसी की पात्रता नहीं देखते। वे तो बस बादलों के समान बरस जाते हैं। जब हम गुरुदेव के आश्रम में आए  तो बहुत बार लगता था कि यहाँ के लिए कुछ करने वालों को बहुत प्रतिष्ठा मिलती होगी। जैसे आश्रम में कोई एक कमरा बनवा देता था, उसके द्वार पर उसके नाम का एक शिलापट्ट लगा होता। उनमें से कई लोग इसी अभिमान से भरे होते थे कि हमने इस आश्रम के लिए एक कमरा बनवा दिया। वो लोग बार-बार अपने उस कृतित्व को व्यक्त करते।

यह सब देखकर हमने भी सोचा कि चलो अपन भी कुछ गेहूँ इकट्ठा करते हैं आश्रम के लिए, शायद यहाँ पर अपना भी कोई विशेष सम्मानजनक स्थान बन जाये। नये-नये दीक्षित हुए  थे, बालमन लिए हुए निकल पड़े। गाँव-गाँव भटकते रहे। एक जगह जाँच  चैकी पर चेंकिंग के नाम पर पुलिस ने हमें दो दिन तक रोके रखा। इस  तरह बहुत सारी परेशानियों के बाद हम गेहूँ इकट्ठा करके वापिस आश्रम पहुँचे। सोचा कि गुरुदेव बहुत प्रसन्न होंगे, सबके बीच हमारी जय-जयकार हो जायेगी। लेकिन गुरुदेव के चरणों में बैठकर जब उनके मुख की ओर देखा तो लगा कि उनपर जैसे कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं हुई उस गेहूँ संग्रहण को लेकर। वे कुछ नहीं बोले लेकिन निश्चित तौर पर मुझे ऐसा अनुभव हुआ जैसे उनका मौन मुखरित हो उठा और वे बोल रहे हैं कि -‘ऋतंभरा, आश्रम में अपनी जगह या प्रतिष्ठा बनाने के लिए इतना भटकने की क्या आवश्यकता थी, उसके लिए तो तुम्हारा समर्पण ही पर्याप्त है।’    

गुरु के आश्रम में करना या ना करना मायने नहीं रखता मात्र समर्पण ही उनकी नज़रों में आपको श्रेष्ठता प्रदान कर देता है। जो समर्पित हो गया है, वह बिन्दु जो सिन्धु में मिल गई है उसका जो आनन्द हो, उसकी विराटता का जो रोमंाच है वह बिन्दु बने रहने में संभव नहीं है। ऐसा लगता है कि हम अपने आप में कुछ नहीं होते। कई बार हमें संग का रंग जम जाता है। हमारे आश्रम में कुछ लोग आये और कहने लगे कि हमें बद्रीनाथ जाना है। हमने कहा -गुरुदेव, ये लोग बद्रीनाथ जा रहे हैं, मुझे भी जाना है।’ गुरुदेव बोले -‘तुम क्या करोगी वहाँ?’ मैंने कहा -गुरुदेव, भगवान हैं वहाँ, उनके दर्शन करूँगी।’ वे बोले -‘क्या यहाँ भगवान नहीं हैं?’ मैंने सोचा कि अब क्या करूँ, जाने का मन तो है और जो गुरुदेव कह रहे हैं वो भी सत्य है। मैंने कहा -‘गुरुदेव, वहाँ पहाड़ हैं, सुन्दर हरियाली से भरे हुए।’ गुरुदेव ने हरिद्वार के आश्रम से ही दिख रहे मन्सादेवी पर्वत की ओर संकेत करते हुए कहा -‘वो देखो, सामने हरियाली से भरा हुआ सुन्दर पर्वत।’ मैंने कहा -‘गुरुदेव, बद्रीनाथ के उन पहाड़ों पर बर्फ होती है।’ गुरुदेव ने पास खड़े शिष्यों से कहा -‘ज्योति को बर्फ पसंद है जाओ जरा जाकर बर्फ की दो चार सिल्लियाँ ले आओ और इसके आस-पास रख दो।’ मैंने कहा -गुरुदेव, आप मेरा बद्रीनाथ जाने का किराया नहीं देना चाहते।’ गुरुदेव कुछ क्षण मेरी ओर देखते रहे और बोले -‘अच्छा, हम किराया नहीं देना चाहते?’ यह कहते हुए उन्होंने अपनी जेब से कुछ रूपये निकालकर मेरी गोद में डाल दिये।

मुझे तो बस बद्रीनाथ जाने की लगी थी सो वो रूपये उठाकर रख लिये और उन गृहस्थियों के साथ हरिद्वार से बद्रीनाथ की ओर रवाना हो गई। जब ऋषिकेश के बस अड्डे पर पहुँचे तो वहाँ सूचना प्रसारित हो रही थी कि बद्रीनाथ के रास्ते पर एक बड़ा पहाड़ गिर गया है और अब सात दिनों बाद ही वह रास्ता खुलने की संभावना है। जिनके साथ मैं गई थी वो सारे गृहस्थी गंगा स्नान कर रहे थे, ऋषिकेश के मन्दिरों के दर्शन कर रहे थे लेकिन मैं जस की तस मूर्ति बनी बैठी थी। मेरे अंतर्मन ने मुझे अधिकार ही नहीं दिया कि मैं अंजुलि भरकर गंगाजी का आचमन ही कर लूँ। सांझ हुई तो मैं वापिस हरिद्वार आ गई। अब मेरा अहंकार मुझे बाधा डाल रहा था कि मैं कैसे गुरूजी के सामने जाऊँ। इसी सोच विचार में आश्रम के निकट रानी गली से गुजर रहे नाले के ऊपर बनी पुलिया पर ही मैं बैठ गई। मैंने सोचा यहीं बैठी रहूँ, कोई न कोई सन्त-महात्मा मुझे देख ही लेगा और वो गुरूजी को बता ही देगा। वही हुआ भी। किसी ने गुरूदेव को बताया कि मैं वहाँ बैठी हुई हूँ। गुरूदेव ने आश्रम के द्वार पर आकर मुझे वहीं से आवाज लगाई -‘आ जाओ, आ जाओ, लौट के बुद्धू घर को आये।’ मैं दौड़कर गुरुदेव के चरणों से लिपट गई। उनके सामने ही मन में पक्का निश्चय किया कि जहाँ गुरुदेव की इच्छा नहीं होगी वहाँ कभी नहीं जाऊँगी भले ही वह भगवान का घर ही क्यों न हो। क्यांेकि उनके संकल्पों से ही हम चलते हैं उनकी प्रेरणा ही है जो हमारी गति बन जाती है।

ऐसे सद्गुरुदेव जिन्होंने वत्सलता दी, प्रेम दिया, हमें तराशा। कल कोई हमसे पूछ रहा था कि आप सबसे ज्यादा किनके लिए व्याकुल होती हो?’ मैंने अपने आपको बहुत टटोला। क्योंकि मैं बहुतों को प्यार करती हूँ। वात्सल्य ग्राम के बच्चे, वात्सल्य परिवार के मिशन से जुड़े उन सब लोगों को स्नेह करती हूँ जो दिन रात उसकी सफलता के लिए कार्यरत् हैं। लेकिन प्राण तो गुरुदेव के चरणों में आकर ही खिलते हैं। मैं सोचती हूँ कि हम इतने अर्पित क्यों हो गये? फिर मुझे लगता है कि गुरुदेव ने कभी भी हमारी निजता का हनन नहीं किया। उन्होंने हमें पूरी तरह से खिलने दिया। नहीं तो एक संन्यासिन अपनी ममता बच्चों पर लुटाये ये दृश्य भारत की परंपरागत संन्यास परंपरा से मेल नहीं खाता। मेरे गुरुदेव ने कभी भी हम पर बाहर से कुछ नहीं थोपा और हमें अपनी निजता के साथ ही खिलने दिया। उन्होंने हमें हमेशा अपनी तरह से कार्य करने की आजादी दी। निश्चित रूप से वो ये जानते रहे होंगे कि यदि मैं इस प्रक्रिया से नहीं गुजरी तो कहीं न कहीं अधूरी रह जाऊँगी। मेरा मातृत्व कहीं अतृप्त रह जायेगा। हमने जो भी पाया है अपने गुरुदेव के चरणांे में पाया है। किसी ने कितना कर लिया, कितना पा लिया, कितनी प्रतिष्ठा और यश को पा लिया...यह सब तुच्छ है, गौण है। गुरुदेव के चरणों में बैठकर, उनकी कृपा का प्रसाद पाकर जिस धन्यता का अनुभव होता है वह एक विराट का शहंशाह बन जाने जैसी अनुभूति है।

अपने गुरुदेव के प्रेम में पगे हुए हम सब रात-दिन कार्य करते हंै। कभी बोझिल नहीं होते, कभी नहीं थकते। बस यही है वह विधा जो हमने  अपने सद्गुरु को देख-देखकर पाई है। एकबार हमने ऐसा दृश्य देखा कि जब आश्रम के सारे साधक विश्राम कर रहे थे तब वहां बने 32 शौचालयों के पास बने गटर का ढक्कन खोलकर गुरुदेव उसमें से फावड़ा भर-भरकर मल निकालकर ट्राली में भरकर दूर कहीं फिंकवा रहे हैं। मुझे लगा कि कैसे प्यारे सद्गुरु हैं जो केवल मन के कल्मष को ही नहीं ध्वस्त करते बल्कि साधकों के तन की गंदगी को भी स्वयं साफ करके उन्हें निखारकर उनका आत्मबोध जाग्रत कर देते हैं। मेरे गुरुदेव केवल व्यासपीठों पर बैठने वाले नहीं बल्कि मेहनत के मसीहा हैं।

मुझे लगता है कि शायद आने वाला युग इन सब बातों के लिये तरस जायेगा। इन बातों का यह जो अनिवर्चनीय आनन्द है उसके लिए न तो ऐसे गुरु होंगे और न ही शिष्य। एक दिन गुरुदेव कह रहे थे कि अच्छे व्यक्तियों के गुणों का उत्तराधिकारी मिलना चाहिये। ऐसा हो सके तो चित्त में प्रसन्नता होगी। परिश्रम करना, हरपल आनन्दित रहना, पगों में नृत्य उतार लेना, मन के आंगन को उत्सव वातावरण में रंग देना, हृदय को गौरीशंकर बना लेना, सबके बीच रहते हुए भी निर्लिप्त रहना यही तो मेरे गुरुदेव की दिव्यता है। हमने भगवान तो नहीं देखे लेकिन परमात्मा के रूप में गुरुदेव को देखा है। कभी वो बच्चों जैसी किलकारियां भरते हैं और कभी हम सबको एक मां के जैसे अपने आंचल में समेट लेते हैं। इसी जगत में कई ऐसे लोग हैं जो बड़े-बड़े गुरुओं के चेले होकर भी अपने गुरु के दर्शन को तरस जाते हैं लेकिन हम कितने भाग्यशाली हैं जो हम उसके साथ सहजता से मिलते हुए उनके क्षण-प्रतिक्षण पर कब्जा कर लेते हैं कि हे गुरुदेव अति आग्रहपूर्वक आपके समय के भी अधिकारी हैं। अपनी उदारता का ऐसा प्रसाद बांटने वाले सद्गुरुदेव जी महाराज के चरणों में कोटि-कोटि वंदन अर्पित करती हूँ।   

                                                                                                                            -दीदी मां साध्वी ऋतम्भरा
                                                                                                       सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, जुलाई 2013

Friday, August 2, 2013

क्या तुम यह कर सकोगी माते?

वाणी की धनी, सरस्वती की कृपा पात्र, अन्नपूर्णा के रूप में सबको धन्य करने वाली, मकान को घर  बनाने वाली, संध्या के दीपों से घर को जगर-मगर करने वाली, प्रातः की प्रार्थना में अपने बच्चों को संस्कार देने वाली, इस धरा को, फिजाओं को, आसमान को एक नई रौनक देने वाली, तुम तो साक्षात् जननी हो माते, तुम निर्मात्री हो, तुम मानवता की टकसाल हो, अतीत के भारत में तुम कहीं पिछड़ी नहीं थीं। अगर ऐसा होता तो भारत के श्रेष्ठ पुरुष तुम्हें वरने के लिए लाइन लगाकर क्यों खड़े होते और तुम उसमें अपने गुणों और योग्यता के अनुरूप वर कैसे चुनतीं। अगर तुम अज्ञानी होतीं तो क्या मंदालसा बनकर अपनी संतानों को आत्मज्ञान दे सकती थीं? अगर तुम अज्ञानी होतीं तो अपनी लोरियों में ब्रह्मज्ञान की गूंज कैसे गुंजा  सकती थीं। अगर तुम केवल चूल्हे-चैके की सीमा में बंधीं होतीं तो राजा दशरथ के साथ कैकेयी क्या युद्ध के मैदान में डटी होतीं? वही आज आप लोग कर रही हो।

तब रथ  का पहिया टूटा था जो आज ‘इनरव्हील’ जैसी संस्थाओं के माध्यम से की धुरी बनकर महिलाओं की समाज में महत्वपूर्ण भूमिका को सुनिश्चित कर रहा है। अगर तुम डरपोक होतीं तो हज़ारों-हज़ार विदेशी आक्रमणकारियों के मुण्ड काट-काटकर माँ भारती के चरणों में अर्पित करने वाली झाँसी की रानी नहीं बन सकती थीं। अगर तुम असहाय होतीं तो फिर त्रिदेव, ब्रह्मा, विष्णु और महेश, नन्हें बालक बनकर तुम्हारी गोद का आश्रय कैसे पा सकते थे? त्रिदेवों को भी उनके बौनेपन का एहसास कराकर जब तुम सती अनूसुईया बनती हो तब संसार की शक्तियों को भी नन्हे शिशु बनाकर पालने में डाल देती हो। यह भारत का वह गौरवपूर्ण इतिहास है जिसने आसमान की बुलंदियों को छुआ। इसी देश में बीस-बीस हजार छात्रों के गुरुकुल हुए और उनकी आचार्य स्त्री हुई!  जाने कितनी-कितनी ऋचाओं की रचना करने वाली भारत की ही नारियाँ हुईं। निश्चित रूप से कौशल्या की ममता, जानकी की पावनता, अनूसुईया की दृढ़ता और अहिल्या शापित होती है तो केवल भारत नहीं बल्कि ब्रह्माण्ड के नायक यदि उसकी कुटिया में जाकर अपना सौभाग्य अनुभव करते हैं तो निश्चित रूप से आज नारी को यथेष्ट सम्मान मिलने में हमसे कहाँ चूक हो रही है इस बात का चिंतन करना चाहिए। 

गुलामी का काल था इसलिए हम किसी दूसरे पर आरोप लगायें यह उचित नहीं है।  लेकिन स्त्री और स्त्रित्व का भाव जिसने कहीं न कहीं हमें हीन भावना से ग्रसित किया। देश के अन्दर वातावरण बना कि ये जो स्त्रियाँ रजस्वला होती हैं ये दण्ड है। पुत्र, पिता या पति के आधीन रहना ये दण्ड है। मुखापेक्षी होना ये दण्ड है। निश्चित रूप से बहुत व्याकुलता थी क्योंकि स्त्री ने बहुत बुरे दिन देखे। इतने बुरे दिन कि वह मिट्टी की तरह धुनी गई। उसे बच्चे पैदा करने की मशीन समझा गया। उसे पर्दे के भीतर बन्द कर दिया गया। कारण खोजने जाएंगे तो हमें बहुत सारे दूसरे-दूसरे कारण मिलेंगे लेकिन यह बात निश्चित है कि हम अपने अस्तित्व को भूल गये, अपनी गरिमा और अपने गौरव को भूल गये। देश के अन्दर एक विचित्र सा वातावरण बना कि नारी को मुक्ति का मार्ग मिलना चाहिये और वो स्त्री जिसका सशक्तिकरण होना चाहिए था उसे लगने लगा कि पति का प्यार जो कि पायल के रूप में मेरे पैरों में है वह बन्धन है। मुझे इससे मुक्त होना है। देश के अन्दर एक बड़ा विचित्र सा वातावरण बना जिसके कारण घर मकान बनने लगे। रिश्ते दरकने लगे। ‘अर्थ’ का अर्थ तो रह गया लेकिन रिश्तों का अर्थ खोने लगा।

इन सारी परिस्थितियों के बीच देश ने वह दृश्य भी देखें हैं जब राजनीति की चकाचैंध में आने के लिए महिलायें राजनेताओं के कक्ष के बाहर आधी रात तक लगाकर खड़ी रहीं हैं, आखिर क्यों? ऊँचाईयों को छूने के लिए क्या तुम अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करोगी या अपने मातृत्व का गला घोंट दोगी? क्या तुमने अपने स्त्रियत्व को तिलांजलि देकर ही ऊँचाईयों के शिखरों को छूना है। उड़ान भरना अच्छी बात है लेकिन मुझे नहीं लगता कि पूरे समय कोई आसमान में उड़ते रह सकता है। जब पंख थकने लगते हैं तो फिर किसी घरौंदे की आवश्यकता होती ही है, लौटकर वहीं आना पड़ता है। जहाँ बैठकर विश्राम किया जा सके। वो विश्राम मिले रिश्तों का, वो विश्रान्ति सन्तानों की, यदि मैंने घर को मन्दिर नहीं बनाया तो मैं अपने देश का उद्धार भी कभी नहीं कर सकती। कदाचित्, मैं समझूँ कि मैं गंगोत्री की वह बूंद हूँ जो आगे चलकर महापाटों के साथ न जाने कितने-कितने गाँवों को धन्य करती आगे बढ़ती है। कदाचित् मैं समझूँ कि मैं गायत्री की वो गंगा हूँ, मैं जीवन का वो माधुर्य हूँ जिसको पाकर मनुष्यता तृप्त होती है।

बुरा मत मानियेगा, बहुत बार सिगरेट पे सिगरेट पीने वालों को जब मैं देखती हूँ तो मुझे लगता है कि कदाचित् इसको इसकी माँ ने जीभर कर अपने स्तनों का पान करा दिया होता तो आज ये इस सिगरेट में तृप्ति की तलाश नहीं करता। मुझे लगता है कि दामिनी जैसी मासूम बच्ची के साथ दरिंदगी से पेश आने वाले बच्चों को भी तो जन्म हमारी ही किसी माता ने दिया है ना? क्या हमने उन्हें बताया कि स्त्री केवल शरीर नहीं होती। वो केवल भोगने की चीज नहीं होती। भारत के अन्दर स्त्री ‘भोग्या’ हो ये तो हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी। वो पूज्या के पद पर जब प्रतिष्ठित थी किसके बल पर आगे बढ़ी? अपनी प्रतिभा के बल पर। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस देश के अन्दर अगर स्त्री संन्यासी हो जाये तो बड़ा विचित्र वातावरण बन जाता था आज से 32 साल पहले। हम अपने गुरुदेव की शरण में आये। कितना वैराग्य था हमारे मन में कि अभी संन्यास चाहिये। संन्यास हुआ। फिर कार्यक्रमों का सिलसिला चल पड़ा। बहुत सारे साधु-महात्माओं के बीच में हम ऐसे चुपचाप बैठे रहते जैसे कि हमने संन्यासी होकर कोई अपराध कर दिया हो। इस देश में वातावरण बना और हम समाज के नवनिर्माण के लिए अपना योगदान देने लगे। ऐसी ही एक बड़ी सभा में अनेक सन्त-महात्माओं के  साथ मंै भी मंच पर थी। एक महात्मा जी बोले -‘ऋतम्भरा तो हमारी शक्ति है।’ यह सुनकर मेरा मन गर्व से भर उठा। लेकिन इस एक वाक्य को सुनने के लिए हमने बरसों-बरस तक भारत के धर्म एवं संस्कृति का प्रचार करते हुए गली-गली की धूल फाँकी। यह बताते रहे कि जब हम अभय पद पर प्रतिष्ठित होती हैं तो अपनी मृत्यु को भी ललकार सकती हैं

ऐसी निर्भयता कहाँ आयेगी? तो फिर चलो भारत के उन संस्कारों की तरफ अग्रसर हो जाओ जो सुख-दुःख की झूठी चाह से मुक्त कर देते हैं। तुम वही भीतर का केन्द्रबिन्दु हो माते जिसके चारों ओर संस्कारों का पहिया घूमता है। तुम पुरुष को तृप्ति देती हो, संतानों को संस्कार देती हो। तुम्हारी बड़ी अद्भुत भूमिका है। दुनिया कहेगी कि परिचय क्या है? कुछ साल पहले यह होता था कि डाॅक्टर की घरवाली डाॅक्टरनी कहलाती थी। बिना डिग्री के भले ही उसके पास कोई योग्यता नहीं होती थी लेकिन उसे सब डाॅक्टरनी ही कहते थे। ऐसा कहीं होता है। लेकिन हाँ, हमें लगा कि हमारी भी एक पृथक पहचान होनी चाहिये। पहचान की इस छटपटाहट के बीच देश के अन्दर बहुत सारे ताने-बाने बुने गए। मुझे नहीं लगता कि अगर उत्तरदायित्व बन्धन है तो मैंने भी तो संन्यासी होकर एक उत्तरदायित्व लिया।

पालने के अन्दर जिस तरह से बच्चियाँ फेंकी जाती हैं कि सुनकर आपकी रूह काँप उठे। इतने पापी लोग हैं अभी कुछ ही दिन पहले ही एक बच्ची को वात्सल्य ग्राम के पालने में छोड़ गए, इतनी ठण्ड में उसे ठीक से कपड़े में लपेटा भी नहीं। उस बच्ची ने ठण्ड में दम तोड़ दिया। इतनी निर्दयता! यह भारत का एक घिनौना सच है। कहाँ गई इन्सानियत, कहाँ गई मनुष्यता? अगर किसी लड़की ने अपने कुंआरेपन में किसी बच्चे को जन्म दे दिया तो फिर उसे अवैध कहा जाता है। मैं यह कहती हूँ कि रिश्ता अवैध हो सकता है लेकिन सन्तान कभी अवैध नहीं हो सकती। दो जनों के प्यार के बीच तीसरा पुष्प खिलता है। क्या इस देश की मातृशक्ति यह संकल्प लेने को तैयार है कि हम यह तय करेंगे यदि इस प्रकार के संबंधों में किसी संतान धरती पर आ गई है तो हम अपने सम्मिलित प्रयत्नों से उसकी माँ को उसेे गंदगी मानकर कूड़े के ढेर पर नहीं फेंकने देंगे। क्या हमारा समाज इस तथाकथित झूठी इज्जत के खोल से बाहर आयेगा? अपने सच को स्वीकारेगा? क्या हम ऐसे समाज का निर्माण कर सकते हैं?
                                                                                          
                                                                                                                            -दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा
                                                                                                      सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, फ़रवरी 2013                           

अच्छे इरादों से ही आत्मिक आनन्द मिलता है...

मुझे इस बात का संतोष है कि जिन उद्देश्यों को लेकर प्रतिवर्ष इस ‘बालिका व्यक्तित्व विकास शिविर’ का आयोजन होता है उसमें विभिन्न प्रांतों से भाग लेने वाली बालिकाएं उन्हें पूरी तरह से आत्मसात करने का प्रयत्न कर रही हैं। व्यक्ति यदि सच्चाई और सत्यनिष्ठा के साथ अपना जीवन जीता है तो उसके व्यक्तित्व में गौरव गरिमा जुड़ जाती है। वे जिन जीवन मूल्यों को जिंदगी के साथ लेकर चलते हैं वे उसकी आभा बन जाते हैं। मनुष्य अपनी नियति को स्वयं निर्धारित करता है। सफलता उन्हें ही मिलती है जो कार्य के दौरान डाली गई बाधाओं को पार करते हैं। बच्चों ने शिविर में शिशु के समान बने रहकर बहुत कुछ अच्छा सीखने का प्रयत्न किया इस बात की मुझे बहुत प्रसन्नता है। अनुशासन की कटीली धारों को सहकर बच्चों ने अपनी सुबह से शाम तक की गतिविधियों में ऐसा बहुत कुछ सीखा है जो उन्हें अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन को सार्थक करने में बहुत सहायता प्रदान करेगा।

प्यारी बेटियों, हमेशा स्मरण रखना कि कभी भी नाली में पड़ा कंकर शंकर नहीं बनता। शंकर जो वही पत्थर बनता है जिसने नर्मदा की प्रचण्ड और वेगवान धाराओं को सहन करते हुए अपना ऐसा निर्माण कर लिया जिसने उस पत्थर के भीतर भी लोगों को शंकर के दर्शन करने का आनन्द दे दिया। बच्चों, अभी मैं देख रही थी कि आपने राष्ट्रभक्ति से भरपूर सांस्कृतिक प्रस्तुतियां यहां दीं उन्हें प्रस्तुत करते समय आपके चेहरों पर जो उत्साह भरी चमक थी ना वही इस कार्यक्रम की सफलता है। अक्सर ऐसा होता है कि सुबह से शाम तक के कार्यक्रमों में थका देने वाले कार्यक्रमों के बाद मन बुझ सा जाता है। मैंने इस सात दिवसीय शिविर की संयोजिका शिरोमणि जी से कहा था कि शिविर में आने वाली बच्चियों की कोमलता को ज्यादा कष्ट नहीं देना। कोमलता स्वभाव है नारी का। इसको छोड़ कर शायद अपने अस्तित्व के साथ खिलवाड़ हो जाता है। और कोमलता चाहिये मनुष्यता को। अपना स्नेह और प्रेम से भरा हाथ जब किसी के सिर पर रख दोगी ना तो वो मनुष्यता को अर्जित कर लेगा।

बच्चों, उत्तराखण्ड के तीर्थों में हुई त्रासदी से मेरा मन उद्वेलित है। इतने पूरे भारत को दुखी किया है। लोग कहते हैं कि यह कुदरत का कहर है लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि कुदरत बहुत उदार होती है। तुम एक बीज धरती में डालोगे तो वह उसकेे बदले तुम्हें हजार वापिस लौटाती है। हम उसे जो देते हैं वही तो उससे पाते हैं ना? यह विचार पैदा होता है कि जो केदारनाथ सबके नाथ हैं वो लोगों को अपने आंगन में अनाथ करके वहां विराजित हैं! कदाचित उनके मन में शिकायत है हमारे लिए। वो कहते हैं कि मैं प्रकृति में हूं, मैं सृष्टि में हूं, मैं कण-कण में हूं। तुमने मुर्गी के अण्डे खाये, तुमने असहायों पर डण्डे बरसाये, तुमने अपनी मर्यादाओं का अतिक्रमण किया। तुमने धरती के साथ, प्रकृति के साथ सद्व्यवहार नहीं किया। अब तुम मेरी मूर्ति के सामने आकर मेरा सत्कार कर रहे हो? मैं संहार का देवता हूं लेकिन फिर भी मैं असमय किसी का संहार नहीं करना चाहता लेकिन तुमने यदि प्रकृति का उपहास किया है तो आज प्रकृति तुम्हारा उपहास कर रही है।

आज सारा देश उन लोगों के दर्द को अनुभव कर रहा है जो इस भीषण त्रासदी का शिकार हुए हंै। यह प्रकृति द्वारा किया गया अन्याय नहीं बल्कि हमारे द्वारा हमारे ही साथ किया गया व्यवहार है जो इस प्राकृतिक आपदा के रूप् में हमारे सामने आया है। हम जो चाहते हैं वहीं व्यवहार हमें दूसरों के साथ करना चाहिए। अगर हम प्रकृति से कुछ अच्छा चाहते हैं तो उसके बदले हमें भी उसे कुछ देना होगा ना? हम अगर अपने दुष्कर्मों से प्रकृति को गंदा कर रहे हैं तो बदले में वह हमारा ख्याल कब तक रख सकेगी? केवल प्रकृति ही नहीं बल्कि अपने आसपास के प्राणी मात्र के साथ सद्व्यवहार करो बच्चों। नेह बांटो, प्रेम बांटो, भरोसा बांटो, अपने चित्त में संतोष लाओ, किसी एक की जिंदगी जरूर संवारों। किसी की मदद करो लेकिन ख्याल रहे कि जिसे मदद की है तुमने, उसे पता ही न चले कि किस हाथ ने उसकी मदद की है। ऐसा जीवन जियो जिसपर सब गौरव कर सकें।
बच्चों, प्रतिष्ठा बड़े पदों से मिल सकती है लेकिन प्रसन्नता हमेशा भीतर के अच्छे इरादों से आती है।  अगर कोई बोझिल है तो वह अपने पापों के पत्थरों से दबकर बोझिल होता है। जैसे जैसे इन पत्थरों से मुक्त होओगे तैसे ही तैसे हल्के होकर आनन्द से भर उठोगे। ऐसा व्यक्ति जिसके पास पश्चिम के जगत की त्वरा और पूरब के जगत की शांति हो तभी हम श्रेष्ठ राष्ट्र का निर्माण कर सकेंगे। तुम मां बनोगी आने वाले समय में बेटियों, और जब मां बनोगी तो अपनी संतानों को बताना की बच्चे, स्त्री मात्र शरीर नहीं होती। जब उसे यह संस्कार दोगी तो आने वाले समय में फिर किसी भी ‘दामिनी’ के साथ बर्बर और अमानुषिक व्यवहार नहीं होगा।


                                                                                                                            -दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा
                                                                                                       सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, जुलाई 2013

Monday, July 29, 2013

मम्मी नहीं माँ कहिए और उसके अर्थ को समझें -‘दीदी माँ’ साध्वी ऋतम्भरा

दीदी माँ
अपने देश को समथ्र और समृद्ध बनाने के लिए सुप्त मातृशक्ति का जागरण जरूरी है। हमें शक्ति अर्जित करने है। हमें अपनी शक्ति को पहचानना है और विषम परिस्थितियों से घिरे भारत को एक ऐसी दिशा प्रदान करनी है कि हमारा यह देश, हमारी यह धरा, हमारा यह समाल अपने उस खोए गौरव को पुनः प्राप्त करें जिस गौरव, जिस स्वाभिमान और जिस शक्ति से सम्पन्न हमारे पूर्वज थे, हमारे पुरखे थे।
 
हमारे देश में मातृशक्ति को जागृत करने के प्रयास पश्चिम की तर्ज पर हो रहे हैं। मेरी अपनी मान्यता है कि भारत की नारी-शक्ति, भारत की स्त्री, भारत की महिला, उन पवित्र परंपराओं, मान्यताओं और भारत के गौरव से भरे हुए इतिहास से परिचित होगी तो यह सोचकर कि ‘मुझे इतनी पवित्र पावन सांस्कृतिक परंपरा में जन्म लेने का अवसर मिला है, वह अपने दायित्व, गौरव और स्वाभिमान का अनुभव करेगी। भारत में स्त्री को कभी भोग्या की दृष्टि से नहीं देखा गया। भारत मातृपूजक देश है। याहँ माँ और जननी परमपूज्या होती हैं किंतु आजादी के पूर्व जो हमारी पूज्या थी उसे भोग्या मानने-बनाने का प्रयास हुआ। भारत की मातृ-शक्ति को पीछे धकेलने की कोशिश हुई। हम धीरे-धीरे अपनी गरिमा, अपने गौरव और अपनी संस्कृति के प्रति स्वाभिमान- शून्य होते चले गए। 

भारत की स्त्री को आज के बाजार में उपभोक्ताओं को आकृष्ट करने के लिए विज्ञापन के रूप में साजाया-दिखाया जाता है। हम पाश्चात्य संस्कृति से इतने प्रभावति हैं, इसके आकर्षण में इतना आबद्ध हैं कि अपने ‘स्व’ को भूल गए हैं। अपने स्वरूप को भूल गए हैं। परिणामस्वरूप आज अजीबोगरीब वातावरण में हम अपने को खड़ा पा रहे हैं। हम यह भूल गए हैं कि माँ निर्मात्री होती है। जननी संतान को जन्म देती है, माँ उसे द्विज बनाती है। माँ पुकारने से ‘माँ’ शब्द का उच्चारण करने से हृदय में वात्सल्य, स्नेह और समर्पण का अद्भुत भाव उमड़ उठता है। प्रत्येक स्त्री को माँ होने का सौभाग्य मिला है? किन्तु हमारी अधिकाँश माताएँ, बहनें स्वयं को ‘मम्मी’ कहलाने में गौरव का अनुभव करने लगी हैं। अब कितनी बची हैं ‘माँ’ अपने देश में? अब माताएँ माँ नहीं, केवल मम्मी हैं। काश! माँ होतीं तो समझतीं कि यह सम्बोधन कितना सागरर्भित, कितना मार्मिक और कितना संस्कारक्षम है। 

हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे समस्त संवेदनशील सम्बन्धों की जीवन्तता नष्ट हो गई है। अब हमें यह बताने की आवश्यकता आन पड़ी है कि माँ कहने से हृदय में एक अजीब सी तृप्ति का अनुभव होता है जो ‘मम्मी’ कहने से नहीं हो सकता। पिता जहाँ ‘डैड’ हो गए हों, माँ जहाँ ‘मम्मी’ हो गईं हों तो क्या जाने माँ सन्तान का सुख और क्या जाने संतान माता-पिता के वात्सल्य का आनन्द? कुछ लोग कहते हैं कि शब्दों में क्या रखा है? वे यह नहीं जानते कि शब्दों में बड़े गहरे अर्थ छिपे रहते हैं। हमने जो कुछ खोया है हम उसे पुनः प्राप्त कर सकते हैं। मात्र जागने की जरूरत है। केवल अनुभव करने की जरूरत है। जब घर में पुत्र का जन्म होता है तो लोग कहते हैं ‘‘आपको बधाई हो, आपके कुल का ‘दीपक’ प्रज्जवलित हो गया।’’ लेकिन जो आपके कुल का दीपक है, घर का चिराग, उसके जन्मदिन पर केक काटते, मोमबŸिायाँ बुझाते, ताली पीटते आपकोे शर्म का अनुभव नहीं होता कि, ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’’ का मंत्र दिया था। आज हमारा ही कुल-दीपक, दीपक बुझा रहा है और हम सीना तानकर तालियाँ पीट रहे हैं? क्या इससे बड़ा दुर्भाग्य कुछ और नहीं हो सकता है? अपनी संतानों को प्रकाश से अंधकार की ओर नहीं, अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रेरणा दीजिए ताकि उन्हें पता चले कि प्रकाश की कीमत क्या होती है? वे यह अनुभव करें कि प्रकाश की कीमत क्या होती है?वे यह अनुभव करें कि तेजस्विता, ओजस्विता किसे कहते हैं? यह अनुभव वे कैसे करेंगी? माँ प्रातः काल उठेगी, अपनी सन्तानों को सूर्योदय का दर्शन कराएगी। तब उनके हृदय में तेजस्विता का संचार होगा। अपनी संताने तेजस्वी बनें, ओजस्वी बनें, उन्हें पता चले कि प्रकाश किसे कहते हैं, उन्हें अनुभव हो कि दूसरों को आलोक देना, प्रकाश देना कैसा होता है। यह अनुभव वे कैसे करेंगे, जब तक माँ स्वयं उस अनुभूति से न गुजरेगी?

माँ की महिमा अपार-अथाव है। पशु-जगत में एक बार में ही बारह-बारह बच्चों को जन्म देने वाले पशु पाए जाते हैं। वे बारह-बारह संतानों की जननी बन जाते हैं, तब भी उनकी महिमा नहीं गाई जाती। क्योंकि महिमा संतान को जन्म देने में नहीं महिमा संतान को जन्म देकर उसे द्विज बना देने में है। महिमा तो उन ‘विद्यावतियों’ की होती है जिन्होंने ‘भगतसिंहों’ को फाँसी के फंदे पर झूलते देखा तो उनका कलेजा श्लोकवत् वाणी में बोला कि ‘मेरी कोख आज सार्थक हो गई कि मेरे पुत्र ने भारत की गुलामी की जंजीरें काटने के लिए फाँसी का फंदा चूम लिया, आज मेरा पुत्र को जन्म देना सार्थक हो गया।’

बनना तो विद्यावती जैसी माँ बनना। माँ बनने का सौभाग्य मिला है तो फिर यशोदा जैसी माँ बनना। कोई पूछता है कि कन्हैया की माँ का नाम क्या है तो देवकी का नहीं यशोदा मैया का नाम लिया जाता है। देवकी तो कान्हा की केवल जननी थीं। उनकी माँ यशोदा थीं। जननी होना अलग बात है और माँ होना सर्वथा अलग बात। माँ बनना हो तो जीजाबाई जैसी माँ बनो। ‘स्त्री’ को स्त्री होने का अर्थ समझना चाहिए। मुझे कभी-कभी आश्चर्य होता है कि हम कितनी विचित्र दासता और गुलामी की मानसिकता के दौर से गुज़र रहे हैं कि अपनी परंपरा और क्षमता पर हमें गौरव का अनुभव ही नहीं होता। अपनी शक्ति पर हम विश्वास नहीं कर पाते। परमात्मा ने माँ को सर्वोच्च स्थान दिया है। लोग जब कहते हैं कि स्त्रियों के लिए कुछ ऐसा करो कि वह पुरुषों से भी आगे निकल जाएं तो बहुत पीड़ा होती है। स्त्री को पुरुष के समकक्ष खड़ा करना मूर्खता है। जिसका स्थान देवताओं से भी ऊँचा है, उसको पुरुषों के समकक्ष और उसे आगे निकल जाने की होड़ में खड़ा करोगे? इसका अर्थ यह है कि हमने भारतीय संस्कृति को समझा ही नहीं। भारत की महिला की महिमा बड़ी विचित्र है और इसे समझने के लिए हृदय चाहिए।