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Monday, September 23, 2013

क्यों कुपित है प्रकृति?

मैं विज्ञान का विरोध नहीं करती क्योंकि वह तो नैसर्गिक रूप से ही प्रकृति में चारों ओर विद्यमान है लेकिन ऐसा विज्ञान जो प्रकृति से खिलवाड़ करने लगे, हमें क्या किसी भी समझदार मनुष्य को स्वीकार्य नहीं होगा। हम आधुनिक विज्ञान की चकाचैंध में अपनी लोक मान्यताओं को दकियानूसी नहीं मान सकते। आज धर्म और विज्ञान का जो संघर्ष दिखाई देता है वह प्राचीन भारत में नहीं था। क्योंकि तब विज्ञान को धार्मिक कृत्यों के साथ जोड़ा गया था। तब आज की तरह धर्म को व्यापार बनाने की होड़ नहीं थी। हमारे सभी ऋषि-मुनि मूलतः वैज्ञानिक थे। उस समय उनके द्वारा किए गए वैज्ञानिक अनुसंधानों तथा धारणाओं को सामान्य लोगों तक पहुंचाने मंे सहायक प्रसार माध्यमों का अविष्कार नहीं हुआ थी। इसीलिये उन्हें नित्यप्रति दैनिक जीवन से जोड़ने के लिए धर्म का सहारा लिया गया। उन्होंने बताया कि मानव मूलतः पूर्णरूपेण प्रकृति द्वारा नियंत्रित है, उसकी सभी आवश्यकताएं भी वही पूर्ण करती है इसीलिए उसे माता का दर्जा दिया गया। वृक्ष हमें प्राणवायु देते हैं, इसीलिए उनमें देवताओं का वास माना गया। नदियां हमें जीवन जल देती हैं इसीलिए उन्हें माता माना गया। भारतीय मनीषा में धरती के कण-कण में ईश्वर का वास माना गया क्योंकि इस धरती पर सबकी अपनी महत्ता है।

आज चारों ओर बहस इस बात पर हो रही है कि कि धर्म बड़ा या विज्ञान? आज हम जिस युग से गुजर रहे हैं उसमें तकनीकी योगदान को नहीं भुलाया जा सकता। लेकिन विचार की बात यह है कि आज से हज़ारों वर्श पहले भी तो विज्ञान था। श्री केदारनाथ मंदिर के इतिहास में जाने पर यह मालूम होता है ज्ञात इतिहास में 9 वीं शताब्दी के आसपास उसका जीर्णोद्धार आदि जगद्गुरु शंकराचार्य जी ने करवाया था। अभी हाल की विभीशिका में इस मंदिर के आसपास के लगभग सारे भवन तिनकों के समान जलप्रलय में बह गये लेकिन मंदिर का मुख्य भवन जस का तस टिका रहा। यह वर्णन भी मिलता है कि 14 वीं शताब्दी में जब धरती पर एक छोटा हिमयुग चल रहा था तब केदारनाथ मंदिर की वर्तमान इमारत 400 वर्श तक बर्फ में दबी रही! आप कल्पना कीजिए कि उस समय शिल्प विज्ञान कितना उन्नत रहा होगा जिसने इतना मजबूत भवन बनाया जो ग्लेशियरों में दबकर भी सैकड़ों वर्ष तक सुरक्षित रहा। हज़ारों-लाखों वर्श पूर्व क्या तब विज्ञान नहीं था जब हमारे ऋशि-मुनियों ने ग्रह-नक्षत्रों की सटीक गणना कर खगोलशास्त्र की रचना की। कहने का आशय है कि हमारी एक भी मान्यता ऐसी नहीं है जो विज्ञानसम्मत ना हो।

केदारनाथ त्रासदी की बाद एक बहस और चली कि उसी क्षेत्र में बन रहे एक बांध के बीच में आ रही धारीदेवी की प्रतिमा को योजनाकारों ने बिना किसी आवश्यक अनुष्ठान आदि के वहां से हटाकर अन्यत्र स्थापित करने का प्रयत्न किया।  16 जून 2013 को शाम साढ़े सात बजे देवी की वह प्रतिमा वहां से हटाई गई और उसके तुरंत बाद ही यह जलप्रलय हो गई। इस धार्मिक कारण का खण्डन कर रहे तमाम वैज्ञानिकों से मैं दृढ़तापूर्वक कहना चाहती हूँ कि भारत ही नहीं बल्कि विश्व के कई विकसित देशों में भी लोकमान्यताओं को महत्व दिया जाता है। आज भी हमारे देश के ऐसे पहाड़ी और अभावग्रस्त इलाकों में जहाँ चिकित्सा की प्राथमिक सुविधाएं ही नहीं वहाँ उस गाँव में पूजे जाने वाले देवी-देवता ही उनके रक्षक होते हैं, उन्हें रोगों या प्राकृतिक आपदाओं से बचाते हैं।
यदि इस तर्क को न माना जाये और विज्ञान पर ही विश्वास किया जाये तो हम पायेंगे कि भूवैज्ञानिकों द्वारा भी बरसों से चेतावनियां दी जाती रही हैं कि केदारनाथ धाम के मुख्य मंदिर की पश्चिमी पट्टी पर किसी भी भवन का निर्माण वास्तुविरुद्ध है। वह हिमालय के प्राकृतिक जल बहाव का क्षेत्र है। यही अनुसंधान उस युग का भी है जब आज का तथाकथित विज्ञान नहीं जन्मा था। विकास के नाम पर उस पुरातन मान्यता की अनदेखी के परिणामस्वरूप हजारों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। कुछेक बातों को छोड़ दिया जाये तो हमारी लगभग प्रत्येक मान्यता विज्ञान आधारित ही है।

 मैं वैज्ञानिक विकास का विरोध नहीं करती लेकिन मैं उस प्रगति के विरुद्ध हूं जिसे प्रकृति के साथ बलात्कार करके हासिल किया गया हो। केदारनाथ की त्रासदी बेशक दुखद है लेकिन यह मनुश्य द्वारा विकास की अंधाधुंध दौड़ में प्रकृति से छेड़छाड़ के विरुद्ध एक सीमित चेतावनी भी है। वृक्ष धरती माता के वस्त्र हैं, हम उनकी कटाई करके केवल उसे नग्न ही नहीं कर रहे बल्कि अपने लिए विनाश को आमंत्रित भी कर रहे हैं। विज्ञान के दंभ पर फूलकर हम धरती लांघकर चांद पर जा बसने की तैयारी कर रहे हैं। हम क्यों ये कोशिश नहीं करते कि हमारी यह धरती माता ही चांद से सुंदर बन जाये।

स्मरण रखियेगा कि देवालय शक्तिस्थल होते हैं। वहां जाकर हमें एक नई जीवनी शक्ति अर्जित होती है। भारत के जितने भी सिद्ध और महापुरुश हुए वे अपने जीवन में एक ना एक बार हिमालय जरूर गए। वहां जाकर उन्होंने जप-तप किया फिर नीचे आकर जनता को अपना मार्गदर्शन दिया। देवों की इस तपोभूमि को आज हमारी नवागत पीढ़ी ने रंगभूमि बना दिया है। किस दिशा में जा रही है आज हमारी युवा पीढ़ी? आज इन महान तीर्था में हम दर्शन करने नहीं रंजन करने जाते हैं। यह विभीशिका हमारे ही दुश्कर्मों के द्वारा प्राकृतिक आपदा का भयानक रूप धरकर हमारे ही सामने खड़ी हुई है। पूरा हिमालय क्षेत्र देवाधिदेव महादेव की तपस्थली है। वही महादेव जो विश को अपने कंठ में धारण कर जगत को अमृत बांटते हैं। हिमालय दर्शन को अवश्य जाइये लेकिन अपना प्रदूशण पीछे मत छोड़कर आइए। हिमालय को हिमालय ही रहने दीजिए जहां से जीवन की धारा बहती है।

- दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा 

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