About Didi Maa

Tuesday, September 10, 2013

निष्काम कर्म ही सेवा कार्य की ऊर्जा है

उत्तराखण्ड में परमशक्ति पीठ ने राहत के जो कार्य आरंभ किए हैं। जब हमने यह संकल्प किया था तब मैं अकेली थी लेकिन आज मुझे यह कहते हुए यह गर्व होता है कि आज इस कार्य में मेरी गुरु बहनें, मेरी शिष्याएं और समाज के अनेक बंधु-भगिनी लगे हैं। और सबसे बड़ी कृपा तो मेरे पूज्य गुरुदेव जी की है। हरिद्वार स्थित गुरुदेव के आश्रम को हमने सबसे पहला आधार शिविर बनाया जहां से उत्तराखण्ड पीडि़तों के लिए राहत सामग्री भेजी गई।

मुझे यह कहते हुए भी अति प्रसन्नता है कि हमारे श्री जयभगवान जी अग्रवाल ने आपदा प्रभावितों के लिए बहुत बड़ा सामग्री संग्रह दिल्ली से किया। गृहस्थी की जरूरतों का कोई भी ऐसा सामान नहीं बचा था जिसे उन्होंने हरिद्वार स्थित परमशक्ति पीठ के आधार शिविर पर भेजने में कोई कसर छोड़ी हो। उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था फिर भी उनके मन के उत्साह ने उन्हें फिर से कर्तव्य के मैदान में खड़ा किया। क्योंकि जयभगवान जी किसी भी शुभकार्य में सहयोग के लिए कभी इंकार कर ही नहीं सकते।
     
मैं अपने गुरुदेव पूज्य युगपुरुष जी महाराज के पावन श्रीचरणों में भी कोटि-कोटि प्रणाम करती हूं जिन्होंने हरिद्वार के आश्रम में स्वयं उत्तराखंड वासियों के लिए जाने वाली राहत सामग्री की एक-एक वस्तु को स्वयं देखा और कार्यकर्ताओं को अपना पावन मार्गदर्शन दिया। जब मैं आपदाग्रस्त क्षेत्रों को स्वयं देखने के लिए संजय भैया  जी के साथ हरिद्वार से निकल रही थी तब गुरुदेव ने हंसकर कहा कि -‘ऋतंभरा तुम्हारा शरीर इतना भारी है, तुम कैसे चढ़ पाओगी उत्तराखण्ड के पहाड़ी गांवों तक?’ मैंने कहा -गुरुदेव, आपकी कृपा से मेरा संकल्प भी तो भारी है। मेरा शरीर उसपर भारी नहीं पड़ेगा।’
    
इस कार्य को आरंभ करते हुए मैंने अपनी छोटी-छोटी साध्वी शिष्याओं में अपार उत्साह देखा। जब वो उत्तराखंड के वात्सल्य सेवा केंद्रों की ओर प्रस्थान कर रही थीं तब उन्होंने मुझसे कहा -‘दीदी मां जब उन पहाड़ों पर चारों ओर मौत बरस रही हो तो शायद हमें थोड़ा भय लगेगा। उस समय हम क्या करें? मैंने कहा -‘उस समय इन पंक्तियों को गुनगुनाना…
"वो देखो पास खड़ी मंजिल
इंगित से हमें बुलाती है
साहस से बढ़ने वालों के
माथे पर तिलक लगाती है
साधना कभी ना व्यर्थ जाती
चलकर ही मंजिल मिल पाती
फिर क्या बदली, क्या घाम है
चलना ही अपना काम है.. "
      
मैनें उन्हें कहा कि हमेशा उत्साह से भरे रहना। क्योंकि सेवा का कार्य तो एक गर्भस्थ शिशु जैसा होता है। जो तिल-तिल बढ़ते हुए फिर एक दिन जन्मकर एक फल के रूप में सामने आता है। और हमेशा स्मरण रखना कि जो दिल महत्वाकांक्षाओं से मुक्त होता है वही सेवा में तत्पर होता है। कदाचित व्यासपीठों के आकर्षण बहुत बार सेवाधारियों को भी विचलित करते हैं। क्योंकि यश और कीर्ति ऐसी चीजें हैं कि लोग कंचन और कामिनी को तो छोड़ देते हैं किन्तु प्रसिद्धी की चाह को छोड़ पाना बहुत मुश्किल है। हां यह अलग बात है कि जब भी कहीं कोई फूल खिलता है तो उसकी खुशबू तो अपने आप ही फिजाओं में फैलती है। मैं परमशक्ति पीठ ओंकारेश्वर को संचालित करने वाली अपनी गुरुबहने साध्वी साक्षी चेतना दीदी को बहुत धन्यवाद देती हूं जिनके संरक्षण में रहीं हुई मेरी अनेक छोटी-छोटी शिष्याओं उत्तराखण्ड की दुर्गम परिस्थितियों में सेवाकार्य कर रही हैं। साध्वी शिरोमणि जी ने सबसे पहले सेवाकार्यों की कार्ययोजना पर काम किया। बहन विचित्र रचना ने भी अनेक दुर्गम पहाड़ी गांवों तक जाकर राहत कार्यों में अपना योगदान दिया जो अब भी वहीं हैं।
     
जब हमने उत्तराखण्ड त्रासदी पीडि़तों के लिए अपने राहत कार्य चलाने की योजना सोची तो सबसे पहले हमारे परमशक्ति पीठ आफ अमेरिका के बंधु श्री रक्षपाल जी सूद के नेतृत्व में वहां की टीम सक्रिय हुई। वो बोले कि दीदी मां हम सबसे पहले इस कार्य के लिए अपना योगदान देंगे। उनकी उस टोली के सदस्य श्री बालू जी आडवाणी एक लाख डाॅलर लेकर भारत आए और विगत गुरुपूर्णिमा के अवसर पर उन्होंने वह राशि उत्तराखण्ड आपदा राहत के लिए परमशक्ति पीठ के लिए मुझे भेंट की। हम सब हदय से उनके आभारी हैं।
    
सबसे पहले हमने यह सोचा कि इस आपदा में अनाथ हो गए बच्चों या महिलाओं को वात्सल्य ग्राम लाया जाये लेकिन गढवाली लोग किसी भी हाल में अपने गांव से पांच-सात किलोमीटर से आगे जाते ही नहीं। तो हमने विचार किया कि हम स्वयं चलकर उनके पास जाएंगे। यानि कुआं प्यासे के पास जायेगा। और फिर हमने गुप्तकाशी और उखीमठ में ‘वात्सल्य सेवा केंद्रों’ का संचालन आरंभ किया। मुझसे जुड़े हुए सभी लोग तन्मयापूर्वक इस पुण्यकार्य में सहयोग दे रहे हैं। मैं सोचती थी कि किसी भी कार्य में राजा उदार और प्रशासक कठोर होना चाहिए लेकिन कल पूज्य गुरुदेव कह रहे थे कि अगर व्यवस्थाओं के दौरान भावनाओं का ख्याल ना रहें तो व्यवस्था बेकार है और यदि केवल भावनाएं हों और व्यवस्थायें ना हों तो वो भी बेकार है। इसलिए हमें भावनाओं और व्यवस्थाओं दोनों को संतुलित करते हुए अपने कार्यों को गति प्रदान करनीं है।

- दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा 
सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, सितम्बर 2013 

1 comment:

  1. Baccarat - FECasino
    바카라 betting 카지노사이트 › betting Baccarat is the most popular game to play online. It 제왕카지노 is played in both standard 52-card and 52-card decks. With a standard 52-card deck, you can

    ReplyDelete