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Thursday, August 8, 2013

हरि सुमिरन ही जितेन्द्रिय हो जाने का एकमेव मार्ग है

जब वस्त्र फट जाता है तो धनी व्यक्ति उसे फेंक देता है लेकिन गरीब अपने फटे हुए वस्त्रों को फेंकता नहीं बल्कि वह उनमें पैबंद लगाकर फिर से पहनने के उपयोग में लेता है। किन्तु यदि कभी आसमान फट जाये तो क्या आप उसमें पैबंद लगा सकते हो? आप कहोगे दीदी माँ यह तो संभव ही नहीं है। भला आसमान में पैबंद कैसे लगाया जा सकता है! मेरे बंधुओं और भगिनियों, कामना एक  ऐसा ही बादल है जिसके फटने पर आप पदार्थों का पैबंद लगाकर उसे ठीक करने का प्रयत्न नहीं कर सकते। चाहे जितना प्रयत्न कर लो लेकिन इच्छाओं और वासनाओं से कभी निवृति नहीं हो सकती। मृत्यु के समय जब देह छूट रही हो तब भी मनुष्य को तृष्णा नचाती है। आशा और तृष्णा पीछा नहीं छोड़तीं क्योंकि वो कभी नष्ट ही नहीं होतीं। बचपन के दिन अबोधपन में खो जाते हैं, युवावस्था को वासनाओं के चरणों में न्यौछावर किया और वृद्धावस्था चिंताओं को अर्पित हो गई। अब देह नहीं चलती, अब केवल चिंता है। जिनकी देह चलती है उनको उतनी चिंता नहीं है जितनी कि बुजुर्गों को है। यदि यहाँ पहुंचकर चिंता की बजाय चिंतन किया होता तो जीवन धन्य हो गया होता। जीवन में क्यों आए हो और जब मृत्यु नजदीक हो तो क्या करना है? यह सहज प्रश्न हैं जो लोगों के मन में उठा करते हैं। राजा परीक्षित ने भी शुकदेव जी से यही प्रश्न किया था तब शुकदेव जी महाराज ने कहा था कि तेरा यह प्रश्न लोकहित कारी है राजन्। यह केवल परीक्षित का ही प्रश्न नहीं बल्कि समस्त जीवों का प्रश्न है।  

सबसे पहली बात तो यह है कि जो नहीं बचेगा उसे भी देखो और जो बच जाएगा उस पर भी दृष्टि डालो। जो नहीं बचेगा वह दृष्टिगोचर हो रहा है, वह दृश्यमान जगत है। वह नहीं रहेगा, वह नहीं टिकेगा। हम गंगा का जल अंजुलि में भरकर उसे रोकने का प्रयत्न करते हैं और वह थोड़ी ही देर में अंगुलियों के बीच से बह जाता है। हम कहते हैं कि अरे अंजुलि का जल बह गया। अरे भाई, जब गंगा के किनारे ही बह गए तो भला यह अंजुलि भर जल कैसे रोक लोगे। जिसे जाना है, जिसे नष्ट होना है वह तो होगा ही। जीवन-मरण का यह प्रवाह अनादिकाल का शास्वत सत्य है। लोग अपने स्वजन-संबंधियों को अपने कंधों पर श्मशान तक छोड़कर आते हैं लेकिन कभी भी स्वयं की मृत्यु का चिंतन नहीं करते। दुनिया में जो लोग भी अपनी मृत्यु का चिंतन कर सके वे कभी भी विचलित नहीं हुए। लोग कभी-कभी बड़ी ही विचित्र चिंताएं करते हुए दिखाई देते हैं। मेरे पास कुछ बंधु आए जो श्मशान की बाऊंड्री वाल बनाने के प्रयास में चिंतित थे कि कैसे इसकी व्यवस्थायें जुटाई जाएं। मैंने कहा भाई बड़ी ही विचित्र चिंता है ये आपकी। निश्चित रहिये, श्मशान, श्मशान ही रहने वाला है उसपर कोई कब्जा नहीं करेगा क्योंकि उसमें जो रहते हैं वो बाहर नहीं आ सकते और जो बाहर हैं वो अपनी मर्जी से भीतर जाने की इच्छा नहीं रखते जब तक कि परमात्मा का बुलावा न आ जाये। न जाने कैसी-कैसी दुष्चिंताएं मन में पाले बैठे हैं लोग, देखकर आश्चर्य होता है। स्वयं के बचे रहने की चिंता करने का कोई अर्थ नहीं है बल्कि वह तो जीवन के आनन्द को ही नष्ट कर देती है।

सन्त सावधान करते हैं, जगाते हैं कि अपने स्वरूप में जागो और बंधनों से मुक्त रहो। आनन्दपूर्वक भगवान का भजन करो। जीवन में कुसंगों से हमेशा बचो। कुसंग ही है जो इस देहरूपी गाड़ी को पटरी से उतार देता है। मित्र बनाओ लेकिन इस बात का सदैव ख्याल रखो कि तुम्हारा साथी कहीं तुम्हें कुसंग की ओर न ले जाये। प्रतिदिन प्रातःकाल जागो और परमात्मा का धन्यवाद करो कि उसने तुम्हें आज की भोर देखने के लिए जीवित रखा। ध्यान में बैठकर अपनी देह को साधो, अपनी श्वांसों के प्रति सजग रहो। क्रोध में तुम्हारी सांसें धोंकनी की तरह चलती हैं। याद रखना जो जितनी तीव्र सांसें लेता है उसका जीवनकाल बहुत ही कम होता है। कुते की श्वास धोंकनी की तरह चलती है ना? वह कितने वर्ष जीता है? केवल 12 या 14 वर्ष लेकिन कभी कछुए को देखा। कभी-कभार ही श्वास लेने के लिए पानी के बाहर अपनी गर्दन निकालता है लेकिन कितनी लंबी आयु जीता है वह बरसों-बरस तक। श्वास गहरी हो तो जीवन लंबा होता है। श्वासों का नियमन करो और अपनी देह को, अपनी इन्द्रियों को साधो। आंखों से ही सबकुछ हमारे मन के भीतर प्रवेश करता है इसलिए सबसे पहले अपनी आखों को नियंत्रण में करो। आंखों से देखो नहीं दर्शन करो। हम आगरे का ताजमहल देखने जाते हैं तो सबसे कहते हैं कि हम आगरे का ताजमहल देखकर आ रहे हैं। लेकिन जब वृंदावन में बांके बिहारी जी के मन्दिर से लौटते हो तो सबसे क्या कहते हो? यही कहते हो ना कि हम बिहारी जी का दर्शन करके आ रहे हैं। बस यही फर्क है देखने और दर्शन करने में। अपनी दृष्टि का संयम करो। सृष्टि के हर नजारे का दर्शन वैसे ही करो जैसे शुद्ध भाव से परमात्मा का दर्शन करते हो। सारे जगत के हर प्राणी और हर वस्तु में भगवान के विग्रह का ही दर्शन करो। कानों से श्रवण करो। उन सत्संगों का श्रवण करो जो तुम्हारे जीवन को बदल देने की क्षमता रखते हैं। हाथों से केवल अपना श्रृंगार ही न करो बल्कि उनसे उन नन्हीं सूरतों की साज-सम्भाल करो जिन्हें उनके अपनों ने ही छोड़ दिया जीवन के दोराहे पर। देखो उनकी मुस्कुराहटें तुम्हारे जीवन को खुशियों से भर देंगी। ध्यान रखो कि तुम्हारे कदम मयखानों की दहलीज पर न जायें, अगर ऐसा हो तो तुरन्त ही सजग होकर उन्हें संयमित करो। परमात्मा के प्रेम अनुराग में डूबकर उन्हें विवश कर दो देवालयों की ओर उठने को। यही है इन्द्रियों को जीत लेने की कला और जिस दिन तुम यह कला सीख जाओगे बस उसी दिन जीवन में चमत्कार घटित होगा। फिर कोई पराया नहीं होगा, सब अपनी ही प्रतीत होंगे। फिर कहीं कोई ईष्र्या नहीं होगी तुम सबके प्रति अगाध स्नेह से भर उठोगे। फिर तुम आधा गिलास खाली है ऐसा नहीं कहोगे बल्कि तुम्हें आधा गिलास भरा हुआ प्रतीत होगा।
                                                                                                              - पूज्य दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा 
                                                                                                    सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, जनवरी 2013

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