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Saturday, November 16, 2013

प्रकृति में प्रवेश करें, प्रहार नहीं

भगवान केदारनाथ की तपस्थली जहाँ पल-प्रतिपल देवत्व की अनुभूति होती है ऐसी पावन धरा पर आकर जीवन अपनी धन्यता को अनुभूत करता है। देवभूमि उत्तराखंड जाकर मैंने इस संभावना को तलाशा कि हम वहाँ के आपदा प्रभावित माताओं और बच्चों के लिए क्या कर सकते हैं। निश्चित रूप से पूरा विश्व उत्तराखंड में आई इस आपदा के कारण मानसिक रूप से उद्वेलित हुआ है। मदद के लिए चाहे कोई आ पाया हो या नहीं लेकिन इस संकट को सबने अपने मन में एक घोर कष्ट के रूप में अनुभव किया। मुझे लगता है कि प्रकृति तो माँ है। वो सबका भरण-पोषण करती है, लेकिन जब हम अपनी सीमाओं से बाहर जाते हैं तो जैसे माँ अपने बच्चे की किसी गलती पर उसे तमाचा मार देती है ना, बस वैसा ही कुछ इस त्रासदी में प्रकृति ने हमारे साथ किया है। जब मैं आपदा के तुरन्त बाद पहली बार उत्तराखंड गई थी तब मंदाकिनी मैया से मैंने मन ही मन कहा कि -‘हे माँ तुम तो वात्सल्यमयी हो ना, अपनी संतानों पर वात्सल्य लुटाने वाली? तुम तो वात्सल्य का मर्म हो ना? तुम्हीं तो प्राण हो, तुम ही तो प्रेरणा हो। तुम देवभूमि का उत्सव हो माँ। फिर तुम क्रोधित क्यों हुईं? तुमने इतना विकराल रूप क्यों दिखाया कि तुम्हारी अपनी संतानें तुम्हारे प्रबल प्रवाह में पत्तों की तरह बह गईं? ऐसे बहुत सारे उद्वेलन भरे प्रश्न मन में थे। उत्तर कहाँ से तलाशेंगे? यदि हमारे मन में कहीं विचलन है तो उसका समाधान भी हमें ही खोजना होता है।

हम यदि गंभीरतापूर्वक अनुभव करें तो पाएंगे कि भूमि के कंकर-कंकर में शंकरत्व समाया हुआ है। जैसे देवों के साथ मर्यादापूर्वक व्यवहार किया जाता है। माता-पिता के साथ मर्यादापूर्वक व्यवहार किया जाता है। उसी प्रकार का व्यवहार प्रकृति माता के साथ भी किया जाना चाहिए। माँ के स्तन से दूध पीना शोभा देता है परन्तु माँ के स्तन से उसका रक्त पीना एकदम अशोभनीय है। यह बात सारे संसार के लिए पाथेय है। हजारों वर्ष पहले के भारतीय ऋषियों ने ईश्वरीय सत्ता से केवल मानवता के लिए ही नहीं बल्कि वनस्पतियों, औषधियों और अंतरिक्ष तक के लिए शांति मांगी थी। इसका मतलब यह है कि युगों पहले भारतीय संस्कृति के संवाहक ऋषियों को यह दृष्टि थी कि एक समय वह भी आएगा जब केवल धरती ही नहीं बल्कि अंतरिक्ष की शांति भी भंग हो जाएगी। इसीलिए उन्होंने चारों ओर शांति के लिए प्रार्थना की। जब धरा मनुष्य की फेंकी हुई गंदगी से त्रस्त हो जाएगी। जब औषधियां भी विषाक्त हो जाएंगी। ऐसे समय में केवल शांति की आवश्यकता होगी। उस शांति की कामना भारत के ऋषियों ने की थी। यह कैसे संभव होगा! इसके लिए अशांति के इस विष को अपने कण्ठ में रखने की सामथ्र्य चाहिए। इस सामथ्र्य को पैदा करने के लिए जीवन में साधना चाहिए। हर व्यक्ति को अपने-अपने स्तर पर साधना करनी होगी।

प्रकृति परमेश्वर है उसे पाना है तो उसमें प्रवेश करना होगा। प्रहार करने से वो आहत होती है। हमने प्रहार किया वृक्षों पर, हमने पर्वतों को नोंच डाला अपने क्षुद्र स्वार्थों के कारण। प्रकृति कभी बदला नहीं लेती बल्कि हम ही अपने दुष्कर्मों को त्रासदियों के रूप में भोगते हैं। ‘लम्हों ने खता की और सदियों ने सजा पाई’ केवल कहावत नहीं प्रासंगिकता है। हम जो भोग रहे हैं उसे हमने ही निमंत्रित किया है। किसी भी अनहोनी से बचने के लिए हम सदा परमात्मा को पुकारते हैं। लेकिन प्रकृति में छुपा परमात्मा क्या उस पर प्रहार करने से मिलेगा? नहीं, उसे पाने के लिए हमें उसमें प्रेमपूर्वक प्रवेश करना होगा। प्रवेश की यह सुन्दर प्रक्रिया फिर विनाश का कारण नहीं बनेगी अपितु हमें उस विराट का एक हिस्सा बना लेगी जिस पर हमारा जीवन निर्भर है।

अशांति के इस विष को अपने कण्ठ में रखने की सामथ्र्य हमें शंकर बनाती है। जबसे मैंने देवभूमि के दिव्य आभामंडल में प्रवेश किया है तब से मन से यह बात निकलती है कि आप उत्तराखंडवासी इतनी भयानक विपत्ति के समय में भी अपने भीतर स्थित रहे। मौत के इस तांडव को अपनी आँखों से देखने के बाद भी उनका विवेक बना रहा। यही धर्म का प्रसाद है कि हम घोर संहार के बीच में भी जो अविनाशी तत्व है उसका दर्शन करें। धर्म दृष्टि देता है कि जब सब कुछ मिटने वाला नाशवान है तो फिर हम पदार्थों के पीछे पागल क्यों हों। लोग कहते हैं कि महानगर तो केवल पदार्थों की ही दुनिया है। लेकिन भारत का गौरवशाली अतीत पदार्थों के पीछे नहीं भागा था। परमात्मा के लिए, प्रेम के लिए, प्रीत के लिए, सेवा के लिए, करुणा के लिए, असहायों का हाथ पकड़ने के लिए उस भारत के मन में भाव था। हम पैसे या पेट के लिए नहीं पैदा हुए। ये जो देवभूमि है वह सारे संसार के आकर्षण का केन्द्र है। जब सारा संसार पदार्थों के पीछे भागते-भागते थक जाता है तब वह शांति की तलाश में इसी देवभूमि पर आता है। लेकिन क्या वह यात्री भाव से आता है? नहीं, वह केवल मनोरंजन के लिए आता है। उसकी वह तथाकथित शांति केवल ‘इंटरटेनमेण्ट’ है। जिस देवभूमि में तीर्थयात्री भाव से आना था उस पर वह केवल मनोरंजन के भाव से आता है। यहाँ आकर तो मन का भंजन हो जाना चाहिए, यहाँ आकर तो ‘अ’ मन हो जाना चाहिए। यह वह भूमि है जहाँ मेरे शंकर का परिचय है जो ‘अ’मन के लिए रहता है और विवाह करता है। मेरे शंकर ऐसे हैं जो नैतिकता के लिए पत्नी का त्याग कर सकते हैं। मेरे शंकर अपनी पत्नी का शव लादकर सृष्टि में दौड़ सकते हैं। मेरे शंकर तो ऐसे हैं जो अपने ही दोषों को संहार कर सकते हैं। मेरे शंकर तो खतरों का श्रृंगार कर सकते हैं। मेरे शंकर सारे संसार का विष पी सकते हैं। मेरे शंकर तो घोर अभावों के बीच भी जी सकते हैं। मेरे शंकर और उनका शिवत्व कभी नष्ट नहीं होता। इसी शिवत्व का दर्शन करने के लिए सारा संसार एक आकर्षण में बंधकर इस देवभूमि पर आता है।

इस भूमि पर विराजमान शिव एक असाधारण शक्ति हैं। वो मात्र पदार्थों या वासना के लिए नहीं जीते। हम सबका यह बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है कि हमारी यह देवभूमि ‘देवभूमि’ बनी रहे। हम दुनिया को बदलेंगे। अगर दुनिया ने हमको बदल दिया तो हमारी परंपरा, हमारी मान्यताएं, हमारी शांति और आनन्द वह तो फिर सब नष्ट हो जाएगा। अभी तो उल्टा हो गया। हमने दुनिया को बदलना था लेकिन दुनिया ने हमें बदल दिया! हम पदार्थों के पुजारी हो गए! निश्चित रूप से प्रकृति या परमात्मा के द्वारा प्राणियों को जो चोट पहुँचाई जाती है वो नष्ट करने के लिए नहीं बल्कि कुछ नया आकार देने के लिए होती है। जैसे बच्चे में कोई दोष आ जाए तो माता उसे थोड़ा सा दण्ड देकर सुधारती है, मैं इस दृष्टि से उत्तराखंड की इस प्राकृतिक आपदा को देखती हूँ। घोर विपति के इस समय में मैंने उत्तराखंड के आपदा प्रभावित इलाकों के घरों में जाने का प्रयास किया। मैंने देखा कि यहाँ मातृशक्ति के पसीने से ही यह देवभूमि हरी भरी है। मन करता है कि मैं देवभूमि की माताओं का वंदन करूं।

घर में चूल्हा जला, मवेशियों को चारा मिला, तुमने खेतों को अपने पसीने से सींचा, तुमने संतानों को भी संस्कार दिया। हे माँ, जब मैं तुम्हें देखती हूँ तो लगता है कि मैंने साक्षात् पार्वती माता का दर्शन कर लिया। वो अम्बा, वो जगदम्बा जो अपनी संतानों के लिए श्रम का पसीना बहाकर अपने मकान को ‘घर’ बनाए, मैं उसका दिल से अभिनन्दन करती हूँ। तेरे कारण ही तो मंदिरों के दीप जगर-मगर होते हैं माँ। तेरी साधना अविरत है माँ। वह तो एक नदी की तरह सतत् प्रवाहमान है। तुम्हारी संतानों को देवत्व मिले ये जिम्मेदारी तुम्हारी है। परिस्थितियों से घबराकर असहाय हो जाना शंकर के भक्त जानते ही नहीं हैं क्योंकि घोर अभावों के बीच भी वे अपने आप में स्थित रहने की कला जानते हैं। इसलिए इस समय हमारे लिए जो करणीय है वो हमें करना चाहिए। चिंतन करना चाहिए और उसी चिंतन के मंथन में से अमृत निकलेगा ये बात निश्चित है।

अगर हम शंकर नहीं बने तो क्या हुआ। अरघे के ऊपर नहीं बैठ सके तो क्या हुआ? लेकिन अरघे तक भक्तों जो सैलाब उमड़कर जाता है यदि उन सीढि़यों के कंकर बनने का अवसर भी यदि मिल जाए तो यह भी एक बहुत बड़ा सौभाग्य है। कौन ऐसा शंकर है जो कंकरों मंे से पैदा नहीं होता? क्योंकि कहा भी गया है कि ‘पत्थर जो चोट खा कर टूट गया, कंकर बन गया और पत्थर जो चोट को सह गया वह शंकर बन गया।’ इसलिए परिस्थितियों की चोटों के बीच भी हमें हमारे अस्तित्व, हमारी परंपराओं, हमारी मान्यताओं को शुभ और शिव के साथ जोड़े रखना है। मैं उत्तराखंडवासियों के बीच बैठकर यह अनुभव करती हूँ कि मुझे सहज रूप से वहाँ के नन्हें बच्चों और माता-बहनों के उत्कर्ष के लिए कार्य करना है। वृंदावन के वात्सल्य ग्राम में भी हमने इन्हीं भाव संबंधों पर कार्य किया और एक बड़ा वात्सल्य परिवार बनाया। जिनका कोई नहीं था उन सबको मिलाकर एक अद्भुत परिवार बन गया। हमने कोशिश की है कि हम उत्तराखंड के आपदाग्रस्त इलाकों के लोगों तक अपने सेवाकार्यों को पहुंचा सकें। देवभूमि में पवित्रता पाने के लिए आया जाता है, कुछ देने के लिए नहीं। इसलिए हम अपनी सेवाएं भी इसी भाव के साथ यहाँ समर्पित कर रहे हैं। अपनी सेवाओं के बदले हम सब लोगों को यहाँ की पावनता और शुचिता का प्रसाद मिल सके, यही भाव है परमशक्ति पीठ का। उत्तराखंड की बहनों की आँखों से बहे आँसुओं ने मुझे बहुत भीतर तक द्रवित किया। मैं भूल गई कि मैं एक संन्यासिनी हूँ। मैंने केवल एक साधारण स्त्री के दर्द को अपने अन्दर महसूस किया। मैंने अपने गुरुदेव से कहा कि उत्तराखंडवासी बहनों के आशुओं के प्रवाह में मेरे विवेक का बाँध टूट गया। मैं एक सामान्य स्त्री के धरातल पर आकर खड़ी हो गई। उनकी वो पीड़ा मेरी आँखों से मंदाकिनी के प्रवाह की तरह बहती रही। मैं भी एक स्त्री हूँ, मैं भी एक माँ हूँ, मैं भी दीदी हूँ। मैं यह जानती हूँ कि जब मन का दर्द बहुत ज्यादा हो जाता है तो मनुष्य को स्वयं ही उसकी दवा भी बनना पड़ता है। बहुत सारे दुखद दृश्यों को यहाँ आकर देखना पड़ा। लेकिन अपने पैरों पर खड़ा ही एक मार्ग है। किसी दूसरे की ओर आशा से देखना स्वाभिमानशून्यता है। किसी दूसरे पर निर्भर होना भारत के किसी भी बच्चे और स्त्री को शोभा नहीं देता। हम अपनी विषम परिस्थितियों से निकलकर स्वयं ही अपने पैरों पर खड़े होंगे, हमें यह निश्चय करना है। भारत को यही निश्चय चाहिए। तात्कालिक परिस्थितियां ज़रूर कभी-कभी ऐसी होती हैं कि वो बड़े-बड़ों को हाथ फैलाने पर विवश कर सकती हैं लेकिन बहुत लंबे समय तक ऐसा नहीं रहना चाहिए। हम यदि गिरें तो भले ही किसी का हाथ उठने में हमारी सहायता कर दे लेकिन फिर आगे का सफर हमें अपने कदमों पर ही तय करना चाहिए। सहायता भी एक सीमा तक ही लेनी चाहिए। नहीं तो सहायता लेते ही रहना हमें अकर्मण्य बना देता है। यहाँ उत्तराखंड में वात्सल्य का हमारा यह कार्य यहाँ के लोगों को त्रासदी से उबारकर अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए ही चलाया जा रहा है। निश्चित रूप से यह ईश्वर की किसी बड़ी योजना का ही एक हिस्सा होगा क्योंकि हम सब तो उनके हाथों की कठपुतली भर हैं। उन्हें हमसे जो करवाना है वह उसे हमें अपना निमित बनवाकर कर लेते हैं।

यहाँ वे सारे लोग जिनको इस त्रासदी में फंसकर अन्त्येष्टि की आग भी नसीब नहीं हुई, जो मंदाकिनी मैया की धार में बहे या फिर पहाड़ों के नीचे दब गए मैं उन सबको अपनी करुणा का अघ्र्य अर्पित करती हूँ। निश्चित रूप से भगवान शंकर सबका कल्याण करते हैं। ये मृत्यु बहुत दुखदायी थीं लेकिन वह जो कुछ भी था प्रभु की योजना था। उनकी योजना के सामने कोई योजक टिक नहीं सकता। उसका प्रवाह ऐसा है कि मनुष्य का अहंकार उसके आगे पत्तों की तरह बिखर जाता हैै। इसलिए हम अपने उस अभिमान से मुक्त होकर शिवत्व को समझें। इस त्रासदी के सभी मृतक प्रभु के चरणों में हैं उनका कल्याण ही होगा। मैं भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि उत्तराखंडवासियों का जीवन दोबारा पटरी पर आए, भगवान केदारनाथ जी के दर्शनों की यात्रा पुनः प्रारंभ हो ताकि यहाँ के निवासी फिर से अपने पैरों पर खड़े हो सकें ताकि हम किसी के मुखापेक्षी ना बनें, लेकिन उस मर्यादा के साथ जो भगवान ने हमारे लिए निश्चित की है।

मैं समझती हूँ कि सबसे सुन्दर दृश्य संस्थाओं या पदार्थों को खड़ा करके नहीं उत्पन्न होगा बल्कि इसके लिए वैचारिक क्रांति को जन्म देना होगा। हमें अपनी प्राचीन पवित्रता को लौटाना होगा। मर्यादाओं के साथ अपनी जीवन की तेजस्वी आभा को प्राप्त करना होगा। लेकिन इसके लिए हमें प्रवेश करना होगा। आप जानते हो कि महंगा धन तिजोरी में रखा जाता है और फिर उस पर एक मजबूत ताला लगाया जाता है। ताला तिजोरी से भी कम कीमती होता है जिसके भरोसे पर ही धन को छोड़ा जाता है। फिर उस ताले को खोलने और बन्द करने वाली चाबी तो ताले से भी कम कीमती होती है लेकिन सबसे ज्यादा भरोसा उस छोटी सी चाबी पर ही किया जाता है ना? इतने महंगे धन को उससे कम कीमत की तिजोरी में रखा, उससे भी कम कीमत का ताला लगाया और सबसे कम कीमत की चाबी के भरोसे उसे छोड़ा! एक दिन हथौड़े ने चाबी से पूछा कि ‘मैं दिनभर ठक-ठक करता रहूँ तो ये ताला टूट तो जाएगा लेकिन खुलेगा नहीं लेकिन तू इसे चुपचाप इतनी आसानी से कैसे खोल लेती है?’ चाबी ने उत्तर दिया -‘भैया, इस ताले के चुपचाप खुलने और बन्द होने का रहस्य इतना सा है कि मैं इसे खोलने के लिए इसके भीतर प्रवेश करती हूँ और तुम इसे खोलने के लिए इस पर प्रहार करते हो।’ कदाचित हम भी उस चाबी की तरह ही प्रेमपूर्वक अपनी भूमिका में प्रवेश करना सीखें। ये जो आपदा उत्तराखंड मंे आई यह प्रकृति पर हमारे निरन्तर प्रहार का ही नतीजा है। हमने आस्थापूर्वक प्रकृति में आंचल में प्रवेश करना सीखा ही नहीं। भारत के ऋषियों का दर्शन हमें प्रवेश करना सिखाता है। इसीलिए वर्षों तक साधना में रहने वाले ऋषि ने ग्रह-नक्षत्रों की चाल और गणना को समझ लिया था। वह प्रवेश था और प्रकृति में प्रवेश ही परमात्मा तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग है।

- दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा 
- सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, नवम्बर 2013

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