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Tuesday, August 13, 2013

दर्द का सैलाब जिसे मैंने अपनी आंखों से देखा...

‘टूट चुकी सड़कों और कभी भी भरभराकर गिर पड़ने वाले पहाड़ी मलबे के बीच से होकर हम उत्तराखण्ड के उन गांवों की ओर बढ़ रहे थे जहाँ कई जिंदगियाँ असमय मृत्यु की भेंट चढ़ चुकी थीं। हमने देखा कि इन गांवों में हलचल के नाम पर केवल करुण स्वरों का विलाप था जो दिल को भीतर गहरे तक चीर कर रख देता था। कुछ गांवों के तो सारे पुरुष चाहे वो पति हो या बेटे, सभी उस रात हुई अनायास जल प्रलय में समा गए थे। तूफानी वेग से बहकर गुजर रही किसी पहाड़ी नदी के पास खड़े होकर विलाप करती हुई माँ जब उस नदी से अपने बेटे का शव मांगती है तो कलेजा जैसे बैठ सा जाता है। एक माह से अधिक बीत चुका...अब कोई संभावना नहीं कि अपना खोया हुआ वापिस आएगा लेकिन सूनी आंखें अब भी पहाड़ की ओर टकटकी लगाकर देखती हैं कि शायद पति या बेटा कहीं से घर लौट आए। आशा और निराशा के बीच झूलती जिंदगी मृत शरीर सी बिस्तर पर पड़ी हुई त्रासदी को भोग रही है...मैंने देखा है दर्द के उस सैलाब को अपनी आंखों से जो अब भी मौजूद है उत्तराखंड की पहाडि़यों में’

वो पहाड़ जो हमेशा से उनकी जिंदगी रहे हैं, आज उनके उन शिखरों को देखकर उन्हें सिहरन होती है जहां से पत्थर दिल मौत बरसी थी। टूटे रास्तों पर घायल पड़ी जिंदगियां राहत का रास्ता देख रही हैं। सारे देश के दिल को उत्तराखंड आपदा ने दहला दिया है। देशवासियों ने दिल खोलकर राहत कार्यों में योगदान दिया है लेकिन इस वक्त की जरूरत है घायल दिलों पर अपने स्नेह के लेपन की। अपनों को खो देने का दर्द जीवन भर सालता रहता है। आहत दिलों को अपनेपन के दुलार से राहत की जरूरत है। उत्तराखंड के दूरदराज पहाड़ों में कई गांव ऐसे हैं जहां लगभग हर घर से कोई न कोई पुरुष इस आपदा में काल कवलित हुआ है। इन तमाम गांवों में महिलाओं की आंखों में गहरा सूनापन है..प्रतीक्षा है उन अपनों की जो शायद कभी लौटकर नहीं आएंगे।
 
लगभग टूट चुके खतरनाक रास्तों और गिरते हुए पहाड़ी मलबे के बीच इन आहत दिलों को सहलाने के लिए निकल पड़ी दीदी मां साध्वी ऋतम्भरा जी गहरी संवेदनाओं से भरी हुई हंै। अपने तमाम नियमित कार्यक्रमों को निरस्त कर उन्होंने उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में जाकर आपदा पीडि़तों को गले लगाया। उनकी उन सभी जरूरतों को पूरा करने का वादा किया जिनको पूरा करने का प्रयत्न करते-करते चारधाम यात्रा मार्ग में उनके पति या पुत्र मारे गए।
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मैं ऐसे ही एक गांव ल्वारा तहसील ऊखीमठ के एक घर में गई जहां.एक साधनहीन छोटे से किसान श्रीपुरुषोत्तम शुक्ला के घर में मातम पसरा पड़ा है। इस घर के दो बच्चे हेमन्त शुक्ला और अजय शुक्ला आज तक लापता हैं। मैं जब उनके आंगन में गई तो वहां की नीरवता चीत्कारों से गूंज उठी। उन बच्चों के मूक-बधिर पिता के मुंह से शब्द तो नहीं निकले लेकिन आंखों से झरते आंसू उनके हदय की पीड़ा को बयां कर रहे थे। मां सरस्वती देवी की आंखें अपने दोनों बच्चों की प्रतीक्षा मंे पथरा गई थीं। बच्चों की मौसी मुझसे लिपटकर चीत्कार करती हुई बोली -‘मां, सारे गांव के बच्चे एक-एक कर लौट आए लेकिन बस हमारे ही बच्चे नहीं लौटे। सब दिलासा देते हैं कि वो पहाडों में ही कहीं होंगे। कहां गए हमारे बच्चे?’ रोते-रोते उनका गला सूख गया। मैंने जब बच्चों की मौसी को पानी पिलाना चाहा तो उसका कुछ पलों के लिए रुका रुदन फिर से फूट पड़ा -‘क्या पानी पिउं मां, हमें पानी पिलाने वाले ही चले गए।’ पिता बोल-सुन नहीं सकता, मां स्तब्ध है और मौसी का चीत्कार दिल को दहला देता है। अपनी युवा बहन रंजना शुक्ला की शादी का सपना संजोये दोनों भाई कुछ कमाने के लिए निकले थे। उन्हीं तैयारियों में बड़े उत्साह से मकान बनवाना शुरू किया था। छत पड़ने ही वाली थी और आसमानी आफत ने घर आंगन की नींव को दरका दिया। बनते हुए मकान में बल्लियां अभी भी वहीं टिकी हुई इंतजार कर रही हैं कि उनके दमपर छत भरी जायेगी लेकिन माता-पिता के जीवन के सहारे ढह गए। उनकी लाशें नहीं मिलीं लेकिन एक माह बीत जाने के बाद जैसे उनकी उम्मीदें भी अब आंसुओं के सैलाब में बहती जा रही हैं। माता-पिता और मौसी का क्रंदन तथा बहन के चेहरे की बेनूरी ने मेरे दिल को झकझोर कर रख दिया। उनके साथ मैं भी उस सूने आंगन में देर तक बैठी रोती रही। अपने मन के पक्के संकल्प के साथ मैंने उनसे वादा किया कि हम आपके बेटों को तो वापस नहीं ला सकते लेकिन निश्चित रूप से आपकी इस बेटी की शादी का सारा खर्च परमशक्ति पीठ वहन करेगा।

समझ नहीं आता कि अपनों के बिछोह से पीडि़त लोगों को कैसे सांत्वना दी जाये, कैसे उन्हें संभाला जाये? मुझे लगा कि इस समय इन लोगों को राहत सामग्री के साथ ही स्नेह लेप की जरूरत भी है जो इनके मन के गहरे घावों को भर सके। मैंने परमशक्ति पीठ की अनेक साध्वी बहनों को इस कार्य के लिए उत्तराखंड भेजने की योजना बनाकर उसे मूर्तरूप देने की शुरूआत की है जो इस कार्य को सम्पन्न करेंगी। वे उन महिलाओं तक पहुंचने का पूरा प्रयत्न कर रही हैं जिनके पति या बेटे इस आपदा में या तो लापता हैं या मृत हो चुके हैं। संस्था से जुड़े हमारे भाई क्षतिग्रस्त हुए गांवों की नुकसानी का आकलन करेंगे और वास्तव में जिन्हें आवश्यकता होगी उन तक सहायता सामग्री पहुंचाएंगे। यह कार्य लंबे समय तक चलाये जाने की आवश्यकता है और बहुत व्यापक स्तर पर इसमें समाज के सहयोग की आवश्यकता होगी। मैं सभी देशवासियों से अपील करती हूं कि वे परमशक्ति पीठ को इस पुनीत कार्य में सहयोग देकर उत्तराखण्डवासियों की सहायता करें। 

वहां चारों तरफ बस भय ही भय है। मृत्यु के इस भय के बीच में जिंदगी कैसे जी जाती है यह पहाड़ों के बीच बसे इन गांवों में देखा जा सकता है। अजीब-अजीब सी घटनायें घट रहीं हैं। दर्द से कराह रही देवभूमि के दर्शन की इस यात्रा के अंतिम दिन हम जिस मकान में रुके थे, आधी रात के बाद उसके पास स्थित मकान से भयंकर विस्फोट की आवाज सुनकर हम लोग बाहर निकले। पास के मकान की छत उड़ चुकी थी, उसकी दीवारें चारों ओर बाहर की तरफ बिखरी हुई थीं। सौभाग्य की बात थी कि उस घर में कोई जनहानि नहीं हुई। हमने पता किया कि कहीं कोई गैस सिलेण्डर का विस्फोट तो नहीं हुआ। लेकिन घर के लोगों ने अंदर किसी भी प्रकार के विस्फोट से इंकार किया। बाहर बारिश या मकान पर बिजली गिरने जैसी भी कोई घटना नहीं हुई थी। वह एक रहस्यमयी विस्फोट था जिसने उस मकान के परखच्चे उड़ा दिए। इस घटना का आशय यह निकला कि वहां अभी भी प्रकृति कु्रद्ध है। पहाड़ों की टूटन जारी है।     
 
हमारी भारतीय संस्कृति, हमारी सभ्यता और हमारे संस्कार, प्रकृति के प्रति सहदय होने की प्रेरणा देते हैं। हमने अपने चित्त के अंदर जब भी परमात्मा को पाने की जिज्ञासु वृत्ति को देखा तो अनुभव किया कि नहीं हमें हिमालय की गोद में हरितिमा और प्रकृति जहां आनन्द और उत्सव के साथ अपने आपको प्रकट करती है वो देवभूमि वो देवलोक जहां हम अपने देह, मन और इन्द्रियों के साम्राज्य से परे, माया के जाल से मुक्त होकर उस परमात्म सत्ता को अनुभव कर सकते हैं तो सहज रूप से हमारे चरण उठते हैं देवभूमि हिमालय की तरफ। उत्तरांचल का वह क्षेत्र जहां बद्री भगवान अपनी विशालता को लिए हुए विराजमान हैं। नर-नारायण जहां नित्यप्रति तप-निरत हैं और केदारनाथ भगवान जहां अपने पूरे शिवत्व के साथ प्रकृति के उस अद्भुत और विहंगम दृश्यों के बीच विराजमान हैं। जहां गौमुख से निःसृहित होने वाली गंगा और यमुना मैया का उद्गम स्थान यमुनोत्री। ये चारधाम की यात्रा प्रत्येक भारतीय के हदय में एक चाह के समान होती है कि जिंदगी में कभी न कभी हमें ऐसे अवसर मिलें जब यह यात्रा कर सकें।

बहुत वर्षों पहले जब भारत में तीर्थयात्री यात्रा करता था तब उस यात्रा के पीछे तप की दृश्टि थी। साधना का मर्म था। परमात्मा को पाने की चित्त के अंदर जिज्ञासा थी। यात्री उस भावना के साथ यात्रा प्रारंभ करता था कि यदि अब लौट के नहीं भी आना होगा तो मन की पूरी तैयारी है इसके लिए। जीवन के उत्तरार्ध में, जीवन के चैथेपन में मोक्ष के द्वार पर दस्तक देने के लिए कोई भी जिज्ञासु, मुमुक्षु या भक्त केदारनाथ भगवान की शरण में जाता था। धीरे-धीरे आधुनिकता का प्रभाव हम पर हुआ और हम सुविधाभोगी जीवन जीने के आदी हुए। हम जीवन के ‘कम्फर्ट झोन’ में जीना चाहते हैं। तीर्थयात्रा में रहकर भी तीर्थत्व का भाव न रहते हुए जब मनोरंजन का भाव प्रबल हुआ तो फिर इस यात्रा का स्वरूप बदला। बड़ी संख्या में बाल-बच्चे और युवा जोड़े इन तीर्थयात्राओं की तरफ उन्मुख हुए। एक ओर तो यह बहुत संुदर लगता है कि हमारी युवा तरुणाई तीर्थयात्राओं पर जा रही है, लेकिन दूसरी ओर लगा कि इस यात्रा के पीछे जो यात्री का एक चित्त होता है, भगवान को पाने की अभिलाषा होती है वह नहीं थी। वर्षों पहले इस यात्रा में दुर्गम रास्तों और पर्वत श्रंृखलाओं के बीच में भीषण ठंड को झेलते हुए यात्री तप-निरत रहता था। मौन रहते हुए उस परम स्थिति को प्राप्त करने के लिए वह यात्रा एक साधना की तरह होती थी। अब वह समय बीत गया है। हम सब सुविधा में जीना चाहते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि यात्रा, यात्रा नहीं रह गई। तीर्थों में जाकर तीरथवास करने के भाव से हम कोसों दूर चले गए। दुष्परिणाम सामने है। प्रकृति कुपित हुई, देव कुपित हुए और हमने देखा कि कैसे मनुष्यता विवश होकर मंदाकिनी के प्रवाह में तिनकों की तरह बिखर गई। हमारी व्यवस्थायें बिखर गईं। हम अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं के जिन भवनों को मंदाकिनी के प्रवाह मार्ग में बनाकर बैठे थे वो ताश के पत्तों की तरह ढह गये। परिणामस्वरूप बहुत दण्ड भोगा। किसने भोगा यह दण्ड? सारे देश ने यह दण्ड भोगा लेकिन सबसे ज्यादा उन्होंने भोगा जिनका कोई दोष नहीं था। उन बहनों, उन देवियों का क्या दोष जिन्होंने अपनी मांग के सिंदूर खो दिए, अपने पुत्रों को खो दिया। मै इस दृष्टि से उत्तरांचल के प्रवास में आई कि मैं स्वयं वहां देखूं कि वहां क्या स्थिती है, हम कहां किस पीडि़त के साथ किस प्रकार से खड़े हो सकते हैं।
    
उत्तराखंड के उन गांवों में जाकर यह दर्दनाक बात पता चली कि दसवीं-बारहवीं कक्षाओं के अधिकांश बच्चे उस
जल त्रासदी में समा गए। माताएं प्रतीक्षा करती रह गईं अपने बच्चों की। देवियां अपने पतियों की प्रतीक्षा करती रह गईं। उनके रुदन, उनके विलाप चित्त को विव्हल करते हैं। उनके हदय से उठती हूक दिशाओं को भी क्रंदित कर देती है। हमारे जैसे साधु-साध्वियों का चित्त भी मौन हो जाता है। ढांढस के शब्द छोटे पड़ जाते हैं। इन सारी विडंबनाओं के बीच चिंतन चलता है कि हम कहां थे और आज कहां आ पहुंचे। अगर देखा जाये तो उत्तरांचल का जीवन ही अपने आप में एक त्रासदी है। केदारनाथ, उखीमठ और उत्तरकाशी के गांव-गांव मंे घूमते हुए मैंने अनुभव किया कि वहां कि प्रत्येक रात दुःखों और मुसीबतों से भरी हुई है। तेज बारिश कहीं हमारी छत को न बहा ले जाये। पहाड़ का मलबा कहीं हमारे पूरे घर को ही समेटकर नहीं में न गिरा दे, इन सारी आशंकाओं के बीच वहां के निवासियों की रातें कटती हैं। जाने कब बादल फट जायें और विपत्ति जाने किस रूप में जाने कब सामने आकर खड़ी हो जाये। यात्रा करते समय हमने देखा कि हमारे सामने ही पर्वत से एक बड़ा पत्थर टूटकर नीचे गिरा और वहां खड़े एक तरुण की मृत्यु उसके आघात से हो गई।
    
भय के बीच में जीवन कैसे जिया जाता है इसे मैं अभी उत्तराखण्ड में देखकर आई हूं। मन में चिंतन चल रहा है कि इन सारी परिस्थितियांे के बीच हम क्या कर सकते हैं मैं तो बस यही संभावनायें तलाश रही हूं। यहां मृत्यु को साक्षात नृत्य करते हुए मैंने देखा है जहां प्रत्येक व्यक्ति बस मृत्यु से ही घिरा हुआ हैै। मृत्यु के इसी तांडव के बीच जीवन को संभालना बस यही इंसानियत का गौरव और जीवन की धन्यता है।
    
मुझे लगता है कि कदाचित् हमने प्रकृति के साथ अपना सहधर्म निभाया होता तो शायद यह स्थिति नहीं आती। हमारी पूरी पूजा पद्धति, हमारी मान्यताएं, परंपराएं प्रकृति के साथ सहधर्म निभाने की पे्ररणा देती हैं। हमारे कर्मकाण्ड आप देख लीजिए जिसमें तुलसी है, दुर्वा है, पुष्प हैं, बिल्व पत्र हैं। प्रकृति के माध्यम से हम परमात्मा को प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे समय में जब हमारी महत्वाकांक्षायें सिर उठा रही हैं तब हम प्रकृति का दोहन-शोषण कर रहे हैं। मां के स्तन से दुग्ध का पान तो शोभा देता है लेकिन मां के स्तन से रक्त का पान करें यह निश्चित रूप से अशोभनीय है। हमने प्रकृति के साथ बिलकुल ऐसा ही व्यवहार किया है। उसके दोहन की सारी सीमाओं का अतिक्रमण हमने किया। परिणाम सामने है। 
    
हिमालय के शिखरों पर जहां भगवान केदारनाथ अपने विभिन्न रूपों में विराजमान हैं हमने इन पुण्यस्थलों को पिकनिक स्पाॅट बना डाला। भगवान शिवशंकर जहां शान्त भाव से तप-निरत रहते हैं हमारे कोलाहल ने निश्चित रूप से उसमें व्यवधान डाला है। लोग पहले वहां जाते थे और भगवान को प्रणाम करके लौट आते थे, एक नई ऊर्जा से भरकर। लेकिन आज वहां जाने कितने होटल बना दिए गए हैं। जब हम लंबे समय तक देवों या गुरु के पास रहते हैं तो उनके सम्मान में मर्यादायें बनाये रखना कठिन होता है।
    
शायद भगवान केदारनाथ को यात्रियों का यह अमर्यादित व्यवहार पसंद नहीं आया। वहीं पर मलमूत्र का त्याग करना, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करना, संभवतः यही दुराचरण इस विनाशलीला का कारण बना और भगवान ने एक ही क्षण मंे यह सब समेट दिया। प्रकृति ने हमें हमारी सीमायें बता दीं। अब समय आ गया है हमारे आत्मचिंतन का। विकास कैसा होना चाहिए इस पर चिंतन होना चाहिए। आज हिमालय में विकास के नाम पर चारों ओर डायनामाइटों के विस्फोट किए जा रहे हैं। एक विस्फोट होता है और चारों दिशाएं हिल जाती हैं। चारों ओर पर्वत शिखरों का क्षरण हो रहा है। हिमालय का मलबे में बदलना निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण है। हमारी व्यवस्थाओं में प्रकृति के प्रति संवेदना होनी चाहिए।
    
भारत ने सदैव कहा है कि त्यागपूर्वक भोगने में ही सुख है। जब त्याग जीवन का लक्ष्य नहीं रह जाता तब मनुष्य, मनुष्य नहीं रह जाता वह भक्षी बन जाता है। वह प्रकृति का भक्षण करता है, वह मर्यादाओं का उल्लंघन करता है, वह धर्म के द्वारा प्रदत्त मान्यताओं का भक्षण करता है। और जहां धर्म भी व्यापार जाये, जहां भगवान के सम्मुख खड़े होने के लिए भी तुम्हें दो नंबर के रास्ते तलाशने पड़ें, वहां दुर्भाग्य के अतिरिक्त फिर और कुछ हो ही नहीं सकता। पैसा दोगे तो फिर शार्टकट में भगवान के दर्शन हो जाएंगे। क्या भगवान केदारनाथ को यह स्वीकार होगा कि एक ओर तो जिनके पास पैसा नहीं है वह पसीने से लथपथ जनता घंटों तक पंक्ति में खड़ी रहकर उनके दर्शनों की प्रतीक्षा करे और आप धन के बल पर कुछ मिनटों में ही भगवान के सम्मुख पहुंच जायें। जिन्हांेने प्रकृति का अपमान किया वे मेरी मूर्ति की आराधना करने आ गए। नहीं भगवान को यह स्वीकार नहीं हुआ। और संभवतः उनका ऐसा भीषण तांडवी रूप हमारे सम्मुख आया है।
    
आने वाला समय कैसा होगा मैं यह बता नहीं सकती क्योंकि मैं भविष्यवक्ता तो हूँ नहीं लेकिन निश्चित रूप से उत्तराखण्ड के इस प्रवास ने चित्त को बहुत व्याकुल किया है। मैं घर-घर गई, गांव-गांव गई, एक-एक बहन को गले लगाया, उसकी आंखों के बहते अश्रु प्रवाह के आगे कदाचित मंदाकिनी का प्रवाह भी मद्धिम लगा। वह प्रवाह प्रश्न करता है कि आखिर हमारा क्या दोष था? ये किसके कर्माें का दण्ड हमें भोगना पड़ा? शब्द को ब्रम्ह कहा जाता है लेकिन शब्द ब्रम्ह से भी परे है उस अबला के दुःख को व्यक्त करना जो इस जगत में नितांत अकेली रह गई हो, जिसने अपने किशोरवय बच्चों को खो दिया हो, जिसकी पथराई हुई आंखें आज भी प्रतीक्षा करती हैं कि जाने कौनसे पहाड़ से उतरकर मेरा पुत्र मेरे घर-आंगन को महका देगा। ऐसी विलाप करती माताओं, बहनों और पत्नियों के बीच बैठकर ऐसा लगा जैैसे कि यदि कोई पत्थर भी हो तो शायद इनका दर्द अनुभव कर पिघल जाएगा। इन सबकी सहायता करने के लिए हमने ऊखीमठ और गुप्तकाशी में परमशक्ति पीठ वात्सल्य सेवा केंद्र स्थापित किए हैं जहां लगातार प्रवास करके हमारी साध्वी बहनें और कार्यकर्ता भाई प्रभावित क्षेत्रों का अध्ययन और उन्हें वांछित सहायता पहुंचाने का हरसंभव प्रयत्न करेंगे। उत्तराखण्ड के इन प्रभावित क्षेत्रों में लंबे समय तक कार्य करके वात्सल्य अपनी भूमिका निभायेगा।     
- दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा
सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, अगस्त २०१३

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