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Saturday, April 4, 2015

सुखी हो जाने की कला

हम स्मरण करते हैं भारत के उन सत्पुरुष महामानवों को जिनका स्मरण मात्र ही चित्त में पावनता का संचार करता है। कदाचित अपने स्वरूप को, अपने आप को खोकर जीने का अर्थ समाप्त हो जाता है। दूसरों के श्रेष्ठ को धारण स्वीकार करना, ये मनुष्य की गरिमा होती है लेकिन अपने श्रेष्ठ को भूल जाना ये मनुष्य का आलस्य और प्रमाद होता है, आत्महीनता की पहचान होती है, इसलिए मेरा जो अपना श्रेष्ठ है जो मुझे मेरे पुरखों से मिला, मेरी परम्परा से मिला, मेरे धर्म से मिला, मेरे देश की माटी के सौंधेपन से मिला, वो है कपिल, कणाद की परम्परा से मिला और सबसे खूबसूरत जो मिला वो भारत की धरती पर ‘मातृभाव’ मिला, ‘मातृसत्ता’ मिली। भारत की मानवी ने जाना कि माँ होने के अर्थ क्या होते हैं। माँ कैसी होती है, माँ क्यों होती है और माँ की गरिमा क्या होती है। अगर सारे विश्व की मानवी को टटोलोगे तो भारत की स्त्री में ही वह स्वरूप दिखाई देगा जो धन्य करता है मनुष्यता को। सबसे पहले भारत ने ही दी है - मातृसत्ता। एक जगह चर्चा चल रही थी कि बच्चों का अच्छा विकास कैसे होगा। संभव है, उन्हें अच्छा भोजन दो, अच्छा वातावरण दो, अच्छी औषधियाँ दो, बच्चा अच्छा बनेगा लेकिन कैसे अच्छा बनेगा अगर उसे जन्म देने वाली माता आत्महीनता की शिकार है, अगर वो मानुषी भाव को खो चुकी है, अगर वो मातृत्व की गरिमा को नहीं पहचानती, अगर वो ये नहीं जानती की संसार का सबसे श्रेष्ठ सृजन मेरे हाथों से हो रहा है, तो फिर उस संतान को मानसिक, आत्मिक और शारीरिक विकास कैसे मिल सकता है? इसलिए अगर भारत अपनी संतानों को खूबसूरत देखना चाहता है, सर्वगुण सम्पन्न देखना चाहता है तो फिर कार्य तो भारत की स्त्री पर ही करना होगा।

आज से बहुत वर्षों पहले विदेश से एक विद्वान आए थे महाराष्ट्र के अन्दर। एक गाँव देखा था उन्होंने। उसके जलाशय के अन्दर स्नान करती स्त्रियों को देखा उन्होंने। अपने संस्मरण में उन्होंने लिखा कि मैंने देखा भारत की स्त्री को, जिसका तन और मन दोनों की बहुत सुन्दर हैं। सकुचा गई थीं वो देवियाँ, जलाशय के पास किसी पराये पुरुष को देखकर। लज्जा, शील, संकोच ये भारत की स्त्री के आभूषण हैं। कदाचित् वो खुलती हैं अपनों के बीच में, लेकिन जब कोई पराया दिखता है तो संकोच में सिकुड़ती जाती हैं। और उनका वही शील उनको खूबसूरत बनाता है। उनका वही शील उनको धन्य बनाता है। उनको चरित्र के शिखर पर पहुँचाता है। उन्होंने लिखा कि कदाचित् यूरोप की स्त्री उस गरिमा को समझ नहीं पाएगी क्योंकि वो अपनी मानसिक और शारीरिक भूख को मिटाने के लिए अपनी संतान को छोड़कर पराये पुरुष के साथ जाती है, अपने पति का त्याग कर देती है, और उसका अपना पति किसी विवाहित स्त्री के साथ अपनी वासना तृप्त करने के चक्कर में लगा रहता है जिसके कारण किसी और का घर बिगड़ जाता है। इस चक्कर में वे संतानें अकेली रह जाती हैं जो किसी भी देश का भविष्य होती हैं। यूरोप की स्त्री कभी नहीं समझ पाएगी उस भाव को, जिसे भारत की स्त्री अपने मन-मानस में जीते हुए अपने घर में स्वर्ग को उतार लेती है।

    लौटकर देखिये उस चिन्तन को, आप कहोगे कि जब हम अपनी बात कहेंगे तो लोग कहते हैं कि ‘अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना।’ लेकिन यदि आप संसार में घूमकर टटोलेंगे तो आपको मानना ही पड़ेगा कि आपके ऋषियों ने आपको जो दिया है वो संसार की सबसे श्रेष्ठ जीवन पद्धति है। स्वामी विवेकानन्द जी महाराज, वो एक पुत्र ही तो थे, माँ भारती के लाल ही तो थे। इटली गए थे वो। वहाँ की एक स्त्री ने प्रस्ताव रखा था उनके सामने कि विवेकानन्द तुम कितने खूबसूरत हो, तुम्हें देखकर चित्त में लालसा पैदा होती है। चित्त के अन्दर वो एक भाव पैदा होता है जो कहता है कि तुम मुझे अंगीकार करो। मुझे आलिंगन में बाँधो। वचन देती हूँ कि तुम्हारे जैसा बेटा पैदा करूँगी। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा -‘मेरे जैसा तो मैं ही हो सकता हूँ देवी। इसलिए आज से मुझे अपना पुत्र स्वीकार कर लीजिये और मेरी माता बन जाइये।’

    इस देश के अन्दर यहीं तक नहीं स्वर्ग की अप्सराओं को भी ऐसा ही उत्तर अर्जुन ने दिया था, जब उर्वशी ने अर्जुन से प्रणय कामना की थी। उर्वशी ने कहा -‘तुमने मेरे प्रणय निमंत्रण को ठुकराया है। याद रखना, तुम किन्नर बनोगे।’ तब अर्जुन ने कहा था -‘देवी, नपुंसक बनना स्वीकार कर लूँगा, उस समय का भी कोई सदुपयोग हो जाएगा लेकिन मेरे चित्त में तुम्हारे प्रति वासना पैदा हो नहीं सकती।’ ये वो प्रामाणिक देश है जिसके देशवासियों ने अपने जीवनमूल्यों को पूर्ण प्रमाणिकता के साथ जिया। आज कहाँ खड़े हैं हम? जीवन के प्रत्येक मोड़ पर मैं अपनों से पूछ रही हूँ - हम दुनिया को बदल रहे या हमको बदल रही है दुनिया।

आज पश्चिम का कितना बड़ा प्रभाव है हम पर। हमें भौतिकता के शिखर छूने हैं। हमें वस्तुएं चाहिए। दुनिया भूल गई हमको, लेकिन हम नहीं भूलते दुनिया को। पदार्थ चाहिए हमको? आश्रमों में सारा संसार आता है, ध्यान की गहराईयों में उतरने के लिए और भारत का कोई भी व्यक्ति बैठता है गोरी चमड़ी वाले के पास और पूछता है -‘कैमरा बेचोगे?’ कितना अन्तर है उस गोरे की दृष्टि हमारे ज्ञान पर, हमारे ध्यान पर और हमारी दृष्टि उसकी वस्तु पर। क्या हुआ? ये कैसा आकर्षण पैदा हुआ? क्या भारत के ऋषि उस युग को भारत के अन्दर नहीं लाये थे जब हम भौतिकता के शिखरों पर भी थे। मन की गति से चलने वाले विमान थे हमारे पास। उन युगों में भी हम उन्नति और प्रगति के शिखरों पर थे। ‘हिन्दू मिथक’ कही जाने वाली अनेक मान्यताओं का आश्रय भी अपने आधुनिक अविष्कारों के लिए वर्तमान युग के वैज्ञानिकों ने लिया लेकिन हमारे ही देश में अपनी परम्पराओं को गाली दी गई। अपने ही मुँह पर तमाचा मारने को प्रगतिशीलता कहा गया। उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि हम जहाँ आकर खड़े हैं वहाँ बड़ी विचित्र स्थिति है। हम दूसरों को देखकर सोचते हैं कि हम दुनिया के साथ दौडेंगे, लेकिन कभी लगता है कि हम ध्यान में उतर लें और कभी लगता है कि धन बटोर लें। जीवन दुविधा में है। स्पष्टता नहीं है।
आज इन स्थितियों पर आकर विचार करना बहुत प्रासंगिक है। स्वामी विवेकानन्द का स्मरण करते हुए हम अपने मूल्यों को स्पष्टता से देखें। विचार करें कि हमारा लक्ष्य क्या है? क्या स्त्री भोग्या है, कामिनी है, क्या उसको केवल अपने तन की सुन्दरता का ही ख्याल रहेगा? क्या तन नंगा और मन क्रूर हो जाएगा तो हम धन्य हो जाएंगे? चिन्तन तो करना चाहिए कि मेरे तन का नंगापन और मेरे मन की क्रूरता मेरी संतानों को कहाँ ले जाएगी? मेरे राष्ट्र को कहाँ ले जाएगी? मेरे समाज को कहाँ ले जाएगी? ये धन की भूख और ये भौतिकता की लालसा क्या मेरे घर को बिखरा तो नहीं देगी? क्या मुझे इसका चिन्तन नहीं करना चाहिए? हाँ, हम प्यार करते थे व्यक्तियों से और इस्तेमाल करते थे वस्तुओं का। अब हम प्यार करते हैं वस्तुओं से और इस्तेमाल करते हैं व्यक्तियों का। दोहन करो, शोषण करो, किसके साथ खड़े होने से लाभ होगा और किसके साथ बात करने से हानि हो जाएगी, यदि हमारे चिन्तन की यह धारा हो गई तो फिर समझ लीजिये कि कहाँ पहुँचेंगे हम।

    आप सोचोगे कि दीदी माँ तो अपनी बात ही निराशावाद से प्रारम्भ कर रही हैं लेकिन ऐसा नहीं है कभी-कभी स्वयं का पोस्टमार्टम करना भी जरूरी होता है। अपने चेहरे के रोग को पाऊडर से ढाँकना, ये कोई रास्ता होता नहीं। पहले रोग को स्वीकार किया जाए फिर उसका इलाज संभव होता है। रोग को अगर हम छुपाने की कोशिश करते हैं तो फिर वो लाइलाज बनता है। तो रोग क्या है? आत्महीनता रोग है। यही हमारी सबसे बड़ी रुग्णता है। अपने श्रेष्ठ के प्रति श्रद्धा का अभाव, ये रोग है। हाँ मैं मानती हूँ कि सामाजिक जीवन में फोड़े पैदा हुए। दुष्वृŸिायाँ आईं, कुरीतियाँ आईं। फोड़े का इलाज होना चाहिए ना? उसके लिए पूरे शरीर को खण्ड-खण्ड करके फेंका तो नहीं जा सकता ना? हमारी गुलामी के लंबे काल ने हमारे समाज को आत्महीन बनाया, यह सच है।

कभी-कभी चर्चा होती है श्रीरामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन की, कि क्यों हम गलियों की खाक छानते रहे। क्या हमें नहीं पता कि परमात्म सत्ता केवल एक मन्दिर तक ही सीमित नहीं बल्कि वो तो कण-कण में व्याप्त है? फिर क्या कारण था कि एक मन्दिर के लिए गाँव-गाँव और नगर-नगर भटक रहे थे हम लोग? वो मात्र एक मन्दिर का विषय नहीं था। वो भारतीय परम्परा के तेज और ओज तथा भारतीय स्वाभिमान, जो धुआँ बनकर उड़ रहा था आसमान में, को स्थापित करने का एक महा अभियान था। बुनियाद थी वो, जिस पर आज आप स्वाभिमान को भव्य भवन देख रहे हो। आज आप वो दिन देख पा रहे हो जब देश के प्रधानपन्त दुनिया में जाकर कहते हैं कि मेरे पास देने के लिए गीता से बढ़कर और कुछ नहीं है, और आपके पास गीता से बढ़कर पाने के लिए और कुछ नहीं है। इस दिन को देखने के लिए आँखें तरस रही थीं। क्या इतने थोड़े से समय में हमें नरेन्द्रभाई ने भव्य भारत दे दिया? लेकिन उसी दिन धन्य हो गई चित्त-चेतना, जिस दिन भारत माता का वो लाल काशी में गंगा के किनारे हाथ में दीप पकड़कर खड़ा हो गया। बाबा काशी विश्वनाथ के मन्दिर में उन्हें अभिषेक करते देखने के बाद छह घण्टों तक मेरी आँखों से अश्रुधारा बहती रही। मैंने अपने गुरुदेव से कहा -‘गुरुदेव, मैं थक गई रोते-रोते।’ वे बोले -‘ऋतम्भरा, आँखों ने वह दिन देख लिया जिसके लिए वर्षों से हम लोग गाँव-गाँव और गली-गली देशाटन कर रहे थे।’ लोग मुझसे पूछते थे कि आप क्यों भटक रही हो हिन्दुस्तान में? हम एक ही बात कहते थे कि बस एक ही चाह है:

लोकसभा बासन्ती चोला पहन के जिस दिन आएगी
गली-गली मेरे भारत की वृन्दावन बन जाएगी

अब हम सब मिलकर निश्चित करें कि अपने जीवन का सकारात्मक रूपान्तरण करेंगे क्योंकि जब तब ऐसा नहीं होगा तब तक मात्र राजनैतिक परिवर्तन से देश की दशा नहीं बदलने वाली। जब तक हम निष्ठावान होकर अपने राष्ट्र, अपनी संकल्पना, राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर की उस ओजमयी परम्परा के संवाहक नहीं बनते, जब तक हम यह तय नहीं करते कि भोग नहीं, महावीर का त्याग ही हमारा मार्ग है, जब तक यह निश्चित नहीं हो जाता कि धन सुविधा तो देगा लेकिन सुखी नहीं करेगा, सुख तो प्रभु के चरणों में बैठकर मिलेगा, तब तक देश सच्चे सुख की ओर नहीं जा सकेगा। भौतिकता साधन तो दे सकती है लेकिन सुखी कर देने की गारंटी नहीं है वह। सुख तो त्याग से ही प्राप्त होता है। आप अंदाजा लगाकर देखो देवियों, देने में सुख है कि पाने में सुख है। आज के दौर में सब कहते हैं कि हमें अपनी तरह से जीना है। अरे भाई, ये अपनी तरह से जीने का अर्थ क्या है? मैं  विरोध नहीं करती प्रगति का, लेकिन कहाँ ले जाकर खड़ा करेगी ये स्वच्छंदता हमें? बूढ़े माँ-बाप को वृद्धाश्रम में पहुँचाएगी। संतानें ‘अवैध’ रूप से जन्मेंगी जिन्हें अनाथाश्रमों में पलना पड़ेगा। ये जो स्वच्छंदता है, घर के तिनके बिखेर देगी। माँ-पिता को लज्जित कर देगी और हम सुखी हो जाएंगे, यह संभव नहीं है।

    क्या है एक परिवार की संकल्पना? मेरा दिल जो कर रहा है उसमें पिताजी राजी हैं या नहीं?, और अगर उनकी रजामंदी है तो फिर जो मैं कर रहा हूँ, वह वास्तव में करने लायक है। यदि वे राजी नहीं हैं तो फिर मेरा मन ‘मनमुखी’ तरह से चल रहा है और वह कार्य करने लायक नहीं है, जिसे मैं चाह रहा हूँ। गुरुजनों को देखते हैं, बड़ों को देखते हैं, अग्रजों को देखते हैं, उनका कहा मानते हैं, यही तो है परिवारभाव। अब इस बात के लिये कोई राजी नहीं है कि जो बड़े कर रहे हैं हमें उसमें अपनी सहमति देनी है। महिलाएं कहती हैं कि हम घर में भले ही आया रख लेंगे लेकिन ये सासू जी का अनुशासन झेलने को तैयार नहीं हैं। अब स्थिति क्या हुई कि जो देश की संतानें हैं उनको बाईयाँ पाल रही हैं, जिनको दादियों और नानियों की गोद में पलना चाहिए था। संयुक्त परिवार की रसधार केवल एक व्यक्ति नहीं बल्कि दस व्यक्तियों से जुड़ी होती है। आज एकल परिवारों में रहने वाले पति-पत्नी में अगर कुछ गड़बड़ हुई तो कई बार उनमें से कोई एक पंखे से लटकता हुआ मिलता है क्योंकि दोनों को समझाने वाला कोई नहीं था। पहले कितने रिश्ते हुआ करते थे। पड़ोसी तक घर के किसी विवाद में बड़े ही अधिकारपूर्वक हस्तक्षेप कर स्थिति को संभाला करता था। जीवन व्यर्थ नहीं लगता था। आज केवल एक के ही साथ चित्तवृत्ति अटक गई है। हमारे मूड के आन/आॅफ का स्विच ही किसी और के हाथ में होता है। हम कहते हैं ना कि हमारा मूड आॅफ है आज।

    कई बार लोग मुझे कहते हैं कि हम दिल से नहीं हँस पाते। मैंने कहा अरे भाई क्यों नहीं हँस पाते। भगवान ने इंसान को हँसने के लिए ही तो भेजा है दुनिया में। आप ये बताओ कि कभी किसी गधे को हँसते देखा है आपने? क्यों बोझिल होते हो आप? क्योंकि अहंकार की चट्टान छाती पर रखकर बैठे हो। अभिमान है - नाम का, धन का, पद का, प्रतिष्ठा का। बहुत ऊँचे शिखर पर भले ही पहुँच गए हो लेकिन जानते हो शिखर का सच? शिखर हमेशा अकेला होता है और अपने आप में जो अकेला होता है वह संसार का सबसे अभागा मनुष्य होता है। 

सौभाग्यशाली वह है जिसे विश्व की ख्याति मिल जाए तो भी वो अपने माँ-पिता के चरणों में आकर वैसे ही बैठे जैसे कोई नन्हा बच्चा अपने माँ और पिता का आँचल पकड़कर मचलता है। भारतीय चिन्तन को धारण करके क्या कभी उदासी आ सकती है मन में? नैराष्य कभी आ सकता है? हँसिए, मुस्कुराईये और इस बात को निश्चित कर लीजिये कि केवल अपने लिए ही नहीं जीना बल्कि अपनों के लिए भी जीना है। केवल अपनों के लिए ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षी, जड़-जंगम सारा ब्रह्माण्ड अपना है यह भाव जिस दिन मन में आ गया उस दिन अपना संसार के सबसे सुखी मनुष्य होने का दर्जा प्राप्त कर लोगे।

अब हम सब मिलकर निष्चित करें कि अपने जीवन का सकारात्मक रूपान्तरण करेंगे क्योंकि जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक मात्र राजनैतिक परिवर्तन से देष की दषा नहीं बदलने वाली। जब तक हम निश्ठावान होकर अपने राश्ट्र, अपनी संकल्पना, राम, कृश्ण, बुद्ध और महावीर की उस ओजमयी परम्परा के संवाहक नहीं बनते, जब तक हम यह तय नहीं करते कि भोग नहीं, महावीर का त्याग ही हमारा मार्ग है, जब तक यह निष्चित नहीं हो जाता कि धन सुविधा तो देगा लेकिन सुखी नहीं करेगा, सुख तो प्रभु के चरणों में बैठकर मिलेगा, तब तक देष सच्चे सुख की ओर नहीं जा सकेगा। भौतिकता साधन तो दे सकती है लेकिन सुखी कर देने की गारंटी नहीं है वह। सुख तो त्याग से ही प्राप्त होता है।

साभार - वात्सल्य निर्झर, मार्च 2015

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