
यह सब देखकर हमने भी सोचा कि चलो अपन भी कुछ गेहूँ इकट्ठा करते हैं आश्रम के लिए, शायद यहाँ पर अपना भी कोई विशेष सम्मानजनक स्थान बन जाये। नये-नये दीक्षित हुए थे, बालमन लिए हुए निकल पड़े। गाँव-गाँव भटकते रहे। एक जगह जाँच चैकी पर चेंकिंग के नाम पर पुलिस ने हमें दो दिन तक रोके रखा। इस तरह बहुत सारी परेशानियों के बाद हम गेहूँ इकट्ठा करके वापिस आश्रम पहुँचे। सोचा कि गुरुदेव बहुत प्रसन्न होंगे, सबके बीच हमारी जय-जयकार हो जायेगी। लेकिन गुरुदेव के चरणों में बैठकर जब उनके मुख की ओर देखा तो लगा कि उनपर जैसे कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं हुई उस गेहूँ संग्रहण को लेकर। वे कुछ नहीं बोले लेकिन निश्चित तौर पर मुझे ऐसा अनुभव हुआ जैसे उनका मौन मुखरित हो उठा और वे बोल रहे हैं कि -‘ऋतंभरा, आश्रम में अपनी जगह या प्रतिष्ठा बनाने के लिए इतना भटकने की क्या आवश्यकता थी, उसके लिए तो तुम्हारा समर्पण ही पर्याप्त है।’
गुरु के आश्रम में करना या ना करना मायने नहीं रखता मात्र समर्पण ही उनकी नज़रों में आपको श्रेष्ठता प्रदान कर देता है। जो समर्पित हो गया है, वह बिन्दु जो सिन्धु में मिल गई है उसका जो आनन्द हो, उसकी विराटता का जो रोमंाच है वह बिन्दु बने रहने में संभव नहीं है। ऐसा लगता है कि हम अपने आप में कुछ नहीं होते। कई बार हमें संग का रंग जम जाता है। हमारे आश्रम में कुछ लोग आये और कहने लगे कि हमें बद्रीनाथ जाना है। हमने कहा -गुरुदेव, ये लोग बद्रीनाथ जा रहे हैं, मुझे भी जाना है।’ गुरुदेव बोले -‘तुम क्या करोगी वहाँ?’ मैंने कहा -गुरुदेव, भगवान हैं वहाँ, उनके दर्शन करूँगी।’ वे बोले -‘क्या यहाँ भगवान नहीं हैं?’ मैंने सोचा कि अब क्या करूँ, जाने का मन तो है और जो गुरुदेव कह रहे हैं वो भी सत्य है। मैंने कहा -‘गुरुदेव, वहाँ पहाड़ हैं, सुन्दर हरियाली से भरे हुए।’ गुरुदेव ने हरिद्वार के आश्रम से ही दिख रहे मन्सादेवी पर्वत की ओर संकेत करते हुए कहा -‘वो देखो, सामने हरियाली से भरा हुआ सुन्दर पर्वत।’ मैंने कहा -‘गुरुदेव, बद्रीनाथ के उन पहाड़ों पर बर्फ होती है।’ गुरुदेव ने पास खड़े शिष्यों से कहा -‘ज्योति को बर्फ पसंद है जाओ जरा जाकर बर्फ की दो चार सिल्लियाँ ले आओ और इसके आस-पास रख दो।’ मैंने कहा -गुरुदेव, आप मेरा बद्रीनाथ जाने का किराया नहीं देना चाहते।’ गुरुदेव कुछ क्षण मेरी ओर देखते रहे और बोले -‘अच्छा, हम किराया नहीं देना चाहते?’ यह कहते हुए उन्होंने अपनी जेब से कुछ रूपये निकालकर मेरी गोद में डाल दिये।
मुझे तो बस बद्रीनाथ जाने की लगी थी सो वो रूपये उठाकर रख लिये और उन गृहस्थियों के साथ हरिद्वार से बद्रीनाथ की ओर रवाना हो गई। जब ऋषिकेश के बस अड्डे पर पहुँचे तो वहाँ सूचना प्रसारित हो रही थी कि बद्रीनाथ के रास्ते पर एक बड़ा पहाड़ गिर गया है और अब सात दिनों बाद ही वह रास्ता खुलने की संभावना है। जिनके साथ मैं गई थी वो सारे गृहस्थी गंगा स्नान कर रहे थे, ऋषिकेश के मन्दिरों के दर्शन कर रहे थे लेकिन मैं जस की तस मूर्ति बनी बैठी थी। मेरे अंतर्मन ने मुझे अधिकार ही नहीं दिया कि मैं अंजुलि भरकर गंगाजी का आचमन ही कर लूँ। सांझ हुई तो मैं वापिस हरिद्वार आ गई। अब मेरा अहंकार मुझे बाधा डाल रहा था कि मैं कैसे गुरूजी के सामने जाऊँ। इसी सोच विचार में आश्रम के निकट रानी गली से गुजर रहे नाले के ऊपर बनी पुलिया पर ही मैं बैठ गई। मैंने सोचा यहीं बैठी रहूँ, कोई न कोई सन्त-महात्मा मुझे देख ही लेगा और वो गुरूजी को बता ही देगा। वही हुआ भी। किसी ने गुरूदेव को बताया कि मैं वहाँ बैठी हुई हूँ। गुरूदेव ने आश्रम के द्वार पर आकर मुझे वहीं से आवाज लगाई -‘आ जाओ, आ जाओ, लौट के बुद्धू घर को आये।’ मैं दौड़कर गुरुदेव के चरणों से लिपट गई। उनके सामने ही मन में पक्का निश्चय किया कि जहाँ गुरुदेव की इच्छा नहीं होगी वहाँ कभी नहीं जाऊँगी भले ही वह भगवान का घर ही क्यों न हो। क्यांेकि उनके संकल्पों से ही हम चलते हैं उनकी प्रेरणा ही है जो हमारी गति बन जाती है।
ऐसे सद्गुरुदेव जिन्होंने वत्सलता दी, प्रेम दिया, हमें तराशा। कल कोई हमसे पूछ रहा था कि आप सबसे ज्यादा किनके लिए व्याकुल होती हो?’ मैंने अपने आपको बहुत टटोला। क्योंकि मैं बहुतों को प्यार करती हूँ। वात्सल्य ग्राम के बच्चे, वात्सल्य परिवार के मिशन से जुड़े उन सब लोगों को स्नेह करती हूँ जो दिन रात उसकी सफलता के लिए कार्यरत् हैं। लेकिन प्राण तो गुरुदेव के चरणों में आकर ही खिलते हैं। मैं सोचती हूँ कि हम इतने अर्पित क्यों हो गये? फिर मुझे लगता है कि गुरुदेव ने कभी भी हमारी निजता का हनन नहीं किया। उन्होंने हमें पूरी तरह से खिलने दिया। नहीं तो एक संन्यासिन अपनी ममता बच्चों पर लुटाये ये दृश्य भारत की परंपरागत संन्यास परंपरा से मेल नहीं खाता। मेरे गुरुदेव ने कभी भी हम पर बाहर से कुछ नहीं थोपा और हमें अपनी निजता के साथ ही खिलने दिया। उन्होंने हमें हमेशा अपनी तरह से कार्य करने की आजादी दी। निश्चित रूप से वो ये जानते रहे होंगे कि यदि मैं इस प्रक्रिया से नहीं गुजरी तो कहीं न कहीं अधूरी रह जाऊँगी। मेरा मातृत्व कहीं अतृप्त रह जायेगा। हमने जो भी पाया है अपने गुरुदेव के चरणांे में पाया है। किसी ने कितना कर लिया, कितना पा लिया, कितनी प्रतिष्ठा और यश को पा लिया...यह सब तुच्छ है, गौण है। गुरुदेव के चरणों में बैठकर, उनकी कृपा का प्रसाद पाकर जिस धन्यता का अनुभव होता है वह एक विराट का शहंशाह बन जाने जैसी अनुभूति है।
अपने गुरुदेव के प्रेम में पगे हुए हम सब रात-दिन कार्य करते हंै। कभी बोझिल नहीं होते, कभी नहीं थकते। बस यही है वह विधा जो हमने अपने सद्गुरु को देख-देखकर पाई है। एकबार हमने ऐसा दृश्य देखा कि जब आश्रम के सारे साधक विश्राम कर रहे थे तब वहां बने 32 शौचालयों के पास बने गटर का ढक्कन खोलकर गुरुदेव उसमें से फावड़ा भर-भरकर मल निकालकर ट्राली में भरकर दूर कहीं फिंकवा रहे हैं। मुझे लगा कि कैसे प्यारे सद्गुरु हैं जो केवल मन के कल्मष को ही नहीं ध्वस्त करते बल्कि साधकों के तन की गंदगी को भी स्वयं साफ करके उन्हें निखारकर उनका आत्मबोध जाग्रत कर देते हैं। मेरे गुरुदेव केवल व्यासपीठों पर बैठने वाले नहीं बल्कि मेहनत के मसीहा हैं।
मुझे लगता है कि शायद आने वाला युग इन सब बातों के लिये तरस जायेगा। इन बातों का यह जो अनिवर्चनीय आनन्द है उसके लिए न तो ऐसे गुरु होंगे और न ही शिष्य। एक दिन गुरुदेव कह रहे थे कि अच्छे व्यक्तियों के गुणों का उत्तराधिकारी मिलना चाहिये। ऐसा हो सके तो चित्त में प्रसन्नता होगी। परिश्रम करना, हरपल आनन्दित रहना, पगों में नृत्य उतार लेना, मन के आंगन को उत्सव वातावरण में रंग देना, हृदय को गौरीशंकर बना लेना, सबके बीच रहते हुए भी निर्लिप्त रहना यही तो मेरे गुरुदेव की दिव्यता है। हमने भगवान तो नहीं देखे लेकिन परमात्मा के रूप में गुरुदेव को देखा है। कभी वो बच्चों जैसी किलकारियां भरते हैं और कभी हम सबको एक मां के जैसे अपने आंचल में समेट लेते हैं। इसी जगत में कई ऐसे लोग हैं जो बड़े-बड़े गुरुओं के चेले होकर भी अपने गुरु के दर्शन को तरस जाते हैं लेकिन हम कितने भाग्यशाली हैं जो हम उसके साथ सहजता से मिलते हुए उनके क्षण-प्रतिक्षण पर कब्जा कर लेते हैं कि हे गुरुदेव अति आग्रहपूर्वक आपके समय के भी अधिकारी हैं। अपनी उदारता का ऐसा प्रसाद बांटने वाले सद्गुरुदेव जी महाराज के चरणों में कोटि-कोटि वंदन अर्पित करती हूँ।
सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, जुलाई 2013
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