
तब रथ का पहिया टूटा था जो आज ‘इनरव्हील’ जैसी संस्थाओं के माध्यम से की धुरी बनकर महिलाओं की समाज में महत्वपूर्ण भूमिका को सुनिश्चित कर रहा है। अगर तुम डरपोक होतीं तो हज़ारों-हज़ार विदेशी आक्रमणकारियों के मुण्ड काट-काटकर माँ भारती के चरणों में अर्पित करने वाली झाँसी की रानी नहीं बन सकती थीं। अगर तुम असहाय होतीं तो फिर त्रिदेव, ब्रह्मा, विष्णु और महेश, नन्हें बालक बनकर तुम्हारी गोद का आश्रय कैसे पा सकते थे? त्रिदेवों को भी उनके बौनेपन का एहसास कराकर जब तुम सती अनूसुईया बनती हो तब संसार की शक्तियों को भी नन्हे शिशु बनाकर पालने में डाल देती हो। यह भारत का वह गौरवपूर्ण इतिहास है जिसने आसमान की बुलंदियों को छुआ। इसी देश में बीस-बीस हजार छात्रों के गुरुकुल हुए और उनकी आचार्य स्त्री हुई! जाने कितनी-कितनी ऋचाओं की रचना करने वाली भारत की ही नारियाँ हुईं। निश्चित रूप से कौशल्या की ममता, जानकी की पावनता, अनूसुईया की दृढ़ता और अहिल्या शापित होती है तो केवल भारत नहीं बल्कि ब्रह्माण्ड के नायक यदि उसकी कुटिया में जाकर अपना सौभाग्य अनुभव करते हैं तो निश्चित रूप से आज नारी को यथेष्ट सम्मान मिलने में हमसे कहाँ चूक हो रही है इस बात का चिंतन करना चाहिए।
गुलामी का काल था इसलिए हम किसी दूसरे पर आरोप लगायें यह उचित नहीं है। लेकिन स्त्री और स्त्रित्व का भाव जिसने कहीं न कहीं हमें हीन भावना से ग्रसित किया। देश के अन्दर वातावरण बना कि ये जो स्त्रियाँ रजस्वला होती हैं ये दण्ड है। पुत्र, पिता या पति के आधीन रहना ये दण्ड है। मुखापेक्षी होना ये दण्ड है। निश्चित रूप से बहुत व्याकुलता थी क्योंकि स्त्री ने बहुत बुरे दिन देखे। इतने बुरे दिन कि वह मिट्टी की तरह धुनी गई। उसे बच्चे पैदा करने की मशीन समझा गया। उसे पर्दे के भीतर बन्द कर दिया गया। कारण खोजने जाएंगे तो हमें बहुत सारे दूसरे-दूसरे कारण मिलेंगे लेकिन यह बात निश्चित है कि हम अपने अस्तित्व को भूल गये, अपनी गरिमा और अपने गौरव को भूल गये। देश के अन्दर एक विचित्र सा वातावरण बना कि नारी को मुक्ति का मार्ग मिलना चाहिये और वो स्त्री जिसका सशक्तिकरण होना चाहिए था उसे लगने लगा कि पति का प्यार जो कि पायल के रूप में मेरे पैरों में है वह बन्धन है। मुझे इससे मुक्त होना है। देश के अन्दर एक बड़ा विचित्र सा वातावरण बना जिसके कारण घर मकान बनने लगे। रिश्ते दरकने लगे। ‘अर्थ’ का अर्थ तो रह गया लेकिन रिश्तों का अर्थ खोने लगा।
इन सारी परिस्थितियों के बीच देश ने वह दृश्य भी देखें हैं जब राजनीति की चकाचैंध में आने के लिए महिलायें राजनेताओं के कक्ष के बाहर आधी रात तक लगाकर खड़ी रहीं हैं, आखिर क्यों? ऊँचाईयों को छूने के लिए क्या तुम अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करोगी या अपने मातृत्व का गला घोंट दोगी? क्या तुमने अपने स्त्रियत्व को तिलांजलि देकर ही ऊँचाईयों के शिखरों को छूना है। उड़ान भरना अच्छी बात है लेकिन मुझे नहीं लगता कि पूरे समय कोई आसमान में उड़ते रह सकता है। जब पंख थकने लगते हैं तो फिर किसी घरौंदे की आवश्यकता होती ही है, लौटकर वहीं आना पड़ता है। जहाँ बैठकर विश्राम किया जा सके। वो विश्राम मिले रिश्तों का, वो विश्रान्ति सन्तानों की, यदि मैंने घर को मन्दिर नहीं बनाया तो मैं अपने देश का उद्धार भी कभी नहीं कर सकती। कदाचित्, मैं समझूँ कि मैं गंगोत्री की वह बूंद हूँ जो आगे चलकर महापाटों के साथ न जाने कितने-कितने गाँवों को धन्य करती आगे बढ़ती है। कदाचित् मैं समझूँ कि मैं गायत्री की वो गंगा हूँ, मैं जीवन का वो माधुर्य हूँ जिसको पाकर मनुष्यता तृप्त होती है।
बुरा मत मानियेगा, बहुत बार सिगरेट पे सिगरेट पीने वालों को जब मैं देखती हूँ तो मुझे लगता है कि कदाचित् इसको इसकी माँ ने जीभर कर अपने स्तनों का पान करा दिया होता तो आज ये इस सिगरेट में तृप्ति की तलाश नहीं करता। मुझे लगता है कि दामिनी जैसी मासूम बच्ची के साथ दरिंदगी से पेश आने वाले बच्चों को भी तो जन्म हमारी ही किसी माता ने दिया है ना? क्या हमने उन्हें बताया कि स्त्री केवल शरीर नहीं होती। वो केवल भोगने की चीज नहीं होती। भारत के अन्दर स्त्री ‘भोग्या’ हो ये तो हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी। वो पूज्या के पद पर जब प्रतिष्ठित थी किसके बल पर आगे बढ़ी? अपनी प्रतिभा के बल पर। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस देश के अन्दर अगर स्त्री संन्यासी हो जाये तो बड़ा विचित्र वातावरण बन जाता था आज से 32 साल पहले। हम अपने गुरुदेव की शरण में आये। कितना वैराग्य था हमारे मन में कि अभी संन्यास चाहिये। संन्यास हुआ। फिर कार्यक्रमों का सिलसिला चल पड़ा। बहुत सारे साधु-महात्माओं के बीच में हम ऐसे चुपचाप बैठे रहते जैसे कि हमने संन्यासी होकर कोई अपराध कर दिया हो। इस देश में वातावरण बना और हम समाज के नवनिर्माण के लिए अपना योगदान देने लगे। ऐसी ही एक बड़ी सभा में अनेक सन्त-महात्माओं के साथ मंै भी मंच पर थी। एक महात्मा जी बोले -‘ऋतम्भरा तो हमारी शक्ति है।’ यह सुनकर मेरा मन गर्व से भर उठा। लेकिन इस एक वाक्य को सुनने के लिए हमने बरसों-बरस तक भारत के धर्म एवं संस्कृति का प्रचार करते हुए गली-गली की धूल फाँकी। यह बताते रहे कि जब हम अभय पद पर प्रतिष्ठित होती हैं तो अपनी मृत्यु को भी ललकार सकती हैं
ऐसी निर्भयता कहाँ आयेगी? तो फिर चलो भारत के उन संस्कारों की तरफ अग्रसर हो जाओ जो सुख-दुःख की झूठी चाह से मुक्त कर देते हैं। तुम वही भीतर का केन्द्रबिन्दु हो माते जिसके चारों ओर संस्कारों का पहिया घूमता है। तुम पुरुष को तृप्ति देती हो, संतानों को संस्कार देती हो। तुम्हारी बड़ी अद्भुत भूमिका है। दुनिया कहेगी कि परिचय क्या है? कुछ साल पहले यह होता था कि डाॅक्टर की घरवाली डाॅक्टरनी कहलाती थी। बिना डिग्री के भले ही उसके पास कोई योग्यता नहीं होती थी लेकिन उसे सब डाॅक्टरनी ही कहते थे। ऐसा कहीं होता है। लेकिन हाँ, हमें लगा कि हमारी भी एक पृथक पहचान होनी चाहिये। पहचान की इस छटपटाहट के बीच देश के अन्दर बहुत सारे ताने-बाने बुने गए। मुझे नहीं लगता कि अगर उत्तरदायित्व बन्धन है तो मैंने भी तो संन्यासी होकर एक उत्तरदायित्व लिया।
पालने के अन्दर जिस तरह से बच्चियाँ फेंकी जाती हैं कि सुनकर आपकी रूह काँप उठे। इतने पापी लोग हैं अभी कुछ ही दिन पहले ही एक बच्ची को वात्सल्य ग्राम के पालने में छोड़ गए, इतनी ठण्ड में उसे ठीक से कपड़े में लपेटा भी नहीं। उस बच्ची ने ठण्ड में दम तोड़ दिया। इतनी निर्दयता! यह भारत का एक घिनौना सच है। कहाँ गई इन्सानियत, कहाँ गई मनुष्यता? अगर किसी लड़की ने अपने कुंआरेपन में किसी बच्चे को जन्म दे दिया तो फिर उसे अवैध कहा जाता है। मैं यह कहती हूँ कि रिश्ता अवैध हो सकता है लेकिन सन्तान कभी अवैध नहीं हो सकती। दो जनों के प्यार के बीच तीसरा पुष्प खिलता है। क्या इस देश की मातृशक्ति यह संकल्प लेने को तैयार है कि हम यह तय करेंगे यदि इस प्रकार के संबंधों में किसी संतान धरती पर आ गई है तो हम अपने सम्मिलित प्रयत्नों से उसकी माँ को उसेे गंदगी मानकर कूड़े के ढेर पर नहीं फेंकने देंगे। क्या हमारा समाज इस तथाकथित झूठी इज्जत के खोल से बाहर आयेगा? अपने सच को स्वीकारेगा? क्या हम ऐसे समाज का निर्माण कर सकते हैं?
-दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा
सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, फ़रवरी 2013
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