
मैंने लोगों को अक्सर यह कहते सुना है कि ‘हमने देश को, समाज को, लोगों को ये दिया, वो दिया लेकिन उसके बदले में हमें क्या मिला।’ परमार्थ के कार्य करने वालों तक को इस सोच से ग्रसित पाया गया है। प्रतिफल की चाह रखने वाली यह छोटी सी सोच उस कार्य के महत्व को गौण कर देती है, जो शीर्षस्तर का होता है। संस्था के किसी कार्यक्रम के निमंत्रण पत्र में ‘मेरा नाम नहीं छपा या मंच पर से मेरा नाम नहीं लिया गया’ मन की यह हीन भावना अनेकों कर्मठ कार्यकर्ताओं को भी उनके पथ से विचलित कर देती है। इन सब बातों पर विचार करते हुए कभी स्वयं को अपनी उस आत्मा के सामने खड़ा करना चाहिए जो सच्चाई का दर्पण है। हमने जो सद्कार्य किया उसकी प्रशंसा दूसरों से ही हमें क्यों मिलनी चाहिए? क्या हम कभी चुपचाप अपने अन्तर्मन में स्थित रहकर अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं कर सकते? ऐसी प्रशंसा जिसमें कोई अहंकार न हो, केवल अपने उस सद्कार्य के प्रति भावविभोर होकर क्या हम कभी प्रभु के सम्मुख नतमस्तक नहीं हो सकते, जिन्होंने हमें उस कार्य के लिए चुना? हमारा अहंकार ही हमारे भीतर यह भाव पैदा करता है कि ‘हमने यह किया’ या ‘हमने वह किया।’ यही अहंकार हमें कर्ता के रूप में खड़ा करता है और इसीके फलस्वरूप हमें अपने सम्मान की चाह उत्पन्न होती है। जो न मिलने पर जीवन घोर कुण्ठा के गर्त में जा गिरता है।
हम यह क्यों नहीं मानते कि करवाने वाला तो परमात्मा है, हम तो केवल उसके साधन भर हैं। हमें यह भी सोचना होगा कि क्या अपने किसी कार्य की वाहवाही लूटने वाले अपने यश को हमेशा कायम रख सके या फिर प्राणिमात्र के कल्याण के लिए निःस्वार्थ अपना जीवन तक दे देने वालों की यशगाथा अमर है। यह विचार करते हुए जब हम अपने गौरवशाली इतिहास मे झाँकंेगे तो निश्चित रूप से यह तथ्य सामने आएगा कि यश उनका ही अमर है जिन्होंने लाभ-हानि की चिन्ता किए बगैर केवल लोकहित को ध्यान में रखकर अपना सर्वस्व न्यौछावर किया।
हर समय आनन्दमय रहने वाले देवलोक में चारों ओर अंधियारा छाया हुआ था। अप्सराओं के नृत्य से जगमग रहने वाले देवराज इन्द्र के दरबार में सन्नाटा पसरा हुआ था। देवगण आदि कहीं दिखाई नहीं देते थे। कारण था घनघोर तपस्या के बाद ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्तकर दैत्यराज ‘वृत्रासुर’ का सम्पूर्ण देवलोक पर बलपूर्वक अधिकार कर लेना। महान् बल तथा पराक्रम वाले उस असुर ने चन्द्रमा, सूर्य, अग्नि, वायु, कुबेर तथा यम के अधिकारों को छीनकर एक प्रकार से तीनों लोकों पर ही एकधिकार प्राप्त कर लिया था। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। वृत्रासुर निरंकुश होकर अत्याचार कर रहा था। देवराज इन्द्र ने त्रसित होकर बृहस्पति जी के निर्देशानुसार ब्रह्माजी से प्रार्थना करके यह रहस्य जाना कि वृत्रासुर की मृत्यु महर्षि दधीचि की अस्थियों के द्वारा निर्मित किये गए वज्र के प्रहार से ही हो सकती है। देवराज इन्द्र अपने समस्त देवताओं के साथ महर्षि दधीचि के आश्रम पहुँचे जहाँ वे साधना में लीन थे। अपने दोनों हाथ जोड़कर इन्द्र ने उन्हें प्रणाम किया। महर्षि ने भी अपने आसन से उठकर उनका अभिवादन किया एवं ससम्मान उन्हें उचित स्थान पर विराजित करवाकर समस्त देवताओं के साथ उनके वहाँ पधारने के प्रयोजन को जानना चाहा -‘कहिये देवराज, आपको स्वयं चलकर यहाँ क्यों आना पड़ा, मुझे बतलाइये?’ देवराज इन्द्र ने निवेदन किया -‘हे मुनिश्रेष्ठ, ब्रह्माजी की तपस्या के फलितार्थ उनसे वरदान पाकर वृत्रासुर नामक एक राक्षस हम लोकपालों को जीतकर स्वयं त्रिलोकेश हो गया है।
मुनिश्रेष्ठ! हम सभी देवतागण उसके भय से स्वर्ग छोड़कर मनुष्यों की भाँति इस मृत्युलोक में निवास कर रहे हैं। मैं न तो यज्ञभाग प्राप्त कर पा रहा हूँ और न कोई हमारी पूजा ही कर रहा है। इस प्रकार की दुर्गति को प्राप्त हुआ मैं आपसे और कुछ क्या कहूँ। आप ही कृपा करके यदि देवताओं का उद्धार करें, तभी दुःखरूपी सागर में निमग्न हम देवताओं का उद्धार हो सकेगा, आप ही हमारे उद्धारक हैं।’
दधीचि बोले -‘जो हो चुका है और जो आगे होगा, वह सब मैं अपनी विशिष्ट विज्ञानरूपी नेत्रों से जान रहा हूँ। इन्द्र! मुझे क्या करना है, वह मुझे बताइये।’ देवराज ने कहा -‘ब्रह्मान्! मैं क्या कहूँ! मुझे बड़ा भय लग रहा है। महामुने! मैं जिसके लिये आपके पास आया हूँ, उसे सुनिये। ब्रह्माजी ने उस वृत्रासुर की मृत्यु किसी अन्य प्रकार से निश्चित नहीं की है, अपितु आपकी अस्थियों से बनाये गये अस्त्रों से ही उसकी मृत्यु सम्भव है। इसीलिये मैं आपके पास आया हूँ। मुनिश्रेष्ठ! जिसके लिये मेरा आगमन हुआ है, वह सब मैंने आपको बता दिया। अब जैसा उचित हो, वैसा आप विचार करें।’
देवराज इन्द्र के ऐसा कहने पर मुनीश्वर दधीचि विचार करने लगे कि क्या मैं इनको निराश करके लौटा दूँ अथवा जगत् कल्याण के लिये अपनी देह का त्याग करूँ। इस प्रकार दुविधा में पड़े हुए महामति दधीचि ने अन्त में देह त्याग का निश्चय करते हुए इन्द्र से कहा -‘देवराज! यदि राज्य से च्युत देवतागण मेरी अस्थियों के द्वारा महान् असुरराज वृत्र से छुटकारा पा सकते हैं तो मैं अवश्य ही योगबल से अपना यह शरीर त्याग दूँगा। उसी प्राणी का शरीर धन्य है, जिसका उपयोग दूसरे के सुख के लिये हो। यह शरीर तो अनित्य है और धर्म ही नित्य है। अतः मैं इस शरीर का त्याग कर रहा हूँ।’ ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ दधीचि ने योग के द्वारा अपने तेज से अत्यन्त दैदिप्यमान अपने शरीर को देवराज इन्द्र के सामने ही त्यागकर मोक्ष को प्राप्त किया।
यह देखकर देवराज इन्द्र बार-बार दीर्घ श्वास लेते हुए ‘लौकिक विषयों की कामना करने वाले हम देवताओं को धिक्कार है’ इस प्रकार स्वयं की निन्दा करते हुए अत्यन्त विषादपूर्ण स्थिति में बहुत समय तक वहीं पर खड़े रहे। तत्पश्चात् इन्द्र ने बहुत ही आदरपूर्वक उनकी अस्थियों को ग्रहणकर उनके द्वारा वृत्रासुर के वध के लिए अनेकों प्रकार के अस्त्र बनवाये। तदन्तर सफल पराक्रम वाले, प्रचण्ड धनुर्धर, देवताओं के नायक इन्द्र उस महान् असुर वृत्रासुर के पास अपनी समस्त देवसेना के साथ गए और उसे युद्ध के लिये ललकारा। वृत्रासुर और देवताओं के साथ उस भयंकर युद्ध में इन्द्र ने दधीचि जी की अस्थियों से बने वज्र और अन्य अस्त्रों द्वारा वृत्रासुर पर भयंकर प्रहार किए जिसके कारण वह मृत्यु को प्राप्त हुआ।
- दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा
सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, फ़रवरी 2014