आप लोगों ने बहुत भारी सम्मान मुझे दिया है, इस सम्मान के योग्य मैं नहीं हूँ। आपका यह सम्मान मैं अपने गुरुदेव पूज्य युगपुरुष स्वामी परमानन्द जी महाराज के चरणों में समर्पित कर रही हूँ। वे एक ऐसी शख्सियत हैं जिन्होंने व्यक्ति को केवल व्यक्ति नहीं रहने दिया बल्कि समष्टि बनाया है। उनकी शरण में जो भी आता है उसका ‘अहं’ ‘वयं’ बन जाता है। उनकी छत्रछाया में जो कुछ पल भी बैठ जाता है वो बिन्दु नहीं रहता, फिर वह सिंधु बन जाता है। जिसने भी उनकी वाणी को सुना वह मांस के पिण्ड में आबद्ध नहीं रहता, वह इन्द्रियों का दास नहीं बनता बल्कि ब्राह्मी चेतना के साथ जुड़ता है। वो सारी सृष्टि का होता है। हम अपने संन्यासकाल के दौरान निबड़ वनों में गुरुदेव के साथ विचरण किया करते थे।
एकबार उन्होंने हमें संघ की शाखा दिखाते हुए कहा कि -‘देखो ऋतम्भरा ये लोग वो संन्यासी हैं जिन्होंने भगवा नहीं धारण किया। याद रखना, साधुता कभी भी वस्त्रों की मोहताज नहीं होती। वह तो बस स्वभाव होती है। स्वभाव में यदि परदुःख कातरता आ गई, स्वभाव में यदि साधुता आ गई, स्वभाव में यदि करुणा आ गई तो समझो कि जिंदगी सार्थक हो गई।’ उन्होंने मुझे कहा कि -‘ऋतम्भरा, ये हिन्दू जाति है। इसे कड़वी दवाई पिलानी पडे़गी। बहुत अपयश मिलेगा इस कार्य में। अमृतपान करने वाली जाति अपने ही देश में शरणार्थियों जैसा जीवन जी रही है, यह मैदान में खड़े होकर कहना होगा।
अपने राष्ट्र और धर्म के रक्षणार्थ साधु को अवसर आने पर सिपाही भी बनना होता है। हो सकता है कि ऐसा करने के दौरान तुम्हें बड़े-बड़े धनवानों से दान-दक्षिणा भी न मिले। तुम्हें व्यासपीठों पर बैठाकर पूजन करने से भी समाज कतराएगा। दुनिया कहेगी कि ये विवादित लोग हैं। कुछ कहेंगे कि इनको राजनैतिक लिप्सा है। लेकिन एक बात स्मरण रखना कि इस देश में परिवर्तन होना है। मात्र सत्ता का नहीं बल्कि सोच का परिवर्तन होना है। क्या तुम ये काम करोगी?’ फिर मेरा वह संघर्ष शुरू हुआ जिसमें मेरे गुरुदेव मेरे साथ थे। देश के लगभग हर प्रांत में मेरे प्रवासों पर प्रतिबंध लगा। लेकिन अपने गुरुदेव के प्रताप के दम पर मैंने, उत्तरप्रदेश जैसे राज्य में जहाँ जगह-जगह मुझपर प्रशासनिक प्रतिबंध लगाये गए थे, अनेकों राष्ट्रजागरण सभायें कीं।

जाने कितनी रातें मैंने रेलवे प्लेटफार्मों और खेतों में बिताईं। हमारा आश्रम है छतरपुर में, वहाँ कई बार रातभर विधर्मियों द्वारा फायरिंग कर हमें भयभीत करने का प्रयत्न किया जाता। मेरे एक गुरुभाई थे बुंदेलखण्ड में उन्हें भी दुष्टों ने दस दिन तक धीरे-धीरे जलाकर मार डाला। गुरुदेव ने कहा कि ऋतम्भरा तुम डरना मत। मैंने कहा गुरुदेव मुझे कल्पवास करना है। इसलिए कुछ दिन प्रयागराज रहना चाहती हूँ। उन्होंने कहा -‘तुम कल्पवास क्यों करोगी?’ मैंने कहा -‘गुरुदेव में घूमते-घूमते थक गई हूँ, मुझे कल्पवास करना है।’ मैं शीश मुंडाकर प्रयागराज में गुरुदेव के पास थी। वहीं पर विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष श्री अशोक जी सिंघल गुरुदेव के दर्शनों के लिए आए तो मुझे कल्पवास करते देख बोले -‘अरे अगर साध्वी ऋतम्भरा कल्पवास करेंगी तो गुजरात का कायाकल्प कौन करेगा।’
यह सुनकर गुरुदेव ने मुझसे कहा -‘ऋतम्भरा, शायद तेरी साधना पिछले जन्मों में हो गई होगी। जाने कितने कल्पवास किये होंगे तुमने, अब तो तुम्हंे गुजरात जाना है। जाओ, अपनी भूमिका निभाकर आओ।’ गुरुदेव की आज्ञा पाकर मैंने गुजरात में व्यापक जनजागरण किया। वहाँ सत्ता परिवर्तन हुआ। लेकिन अपने गुरुदेव के निर्देशानुसार हम कभी भी राजनैतिक गलियारों में नहीं गए। हिन्दू को जगाते रहे और फिर बाद में चुपचाप सेवा के कार्यों में लग गए। मुझमें शुरू से ही लगता था कि मैं वात्सल्य से भरी हुई हूँ। कभी-कभी तो लगा कि मैं अपने गुरुदेव की भी माँ हूँ। मेरे उस वात्सल्य को पहचानकर गुरुदेव ने मुझे दिशा दी और यह बताया कि वास्तव में मेरा कार्य क्या है।
एकबार हम मुंबई से चले तो मैंने गुरूदेव से कहा कि -‘गुरूदेव, मेरी इच्छा है कि हम लोग जालौन चलें। वहाँ पुराने संतों से मुलाकात हो जायेगी। दो दिन पहले ही वहाँ एक घटना घटी थी। मेरी एक गुरू बहन थीं वहाँ जो प्रिंसिपल थीं, उन्होंने विवाह नहीं किया था। शाम उन्होंने अपने घर के बाहर किसी के रोने की आवाज सुनी तो उन्हें लगा कि शायद बाहर कुत्ते को कोई भूखा बच्चा रो रहा है, चलकर उसे बे्रड के कुछ टुकड़े दे दूँ। जैसे ही दरवाजा खोला तो देखा कि उनके घर की छत की पनाल के नीचे भरी बारिश में कोई नवजात शिशु को छोड़ गया था। उनका दिल हाहाकार कर उठा। लपककर उन्होंने उस बालक को उठाया, कपड़े से पोंछकर साफ किया। चाय बनाकर उसकी एक-एक गरम बूंद उसके मुख में डाली। रातभर जागकर इन्तज़ार करती रहीं कि कब सुबह हो उसे अस्पताल में छोड़ आऊँ। सुबह जैसे ही द्वार खोला तो सामने एक सन्त खड़े थे। जिनका नाम था स्वामी सुरेशानन्द जी महाराज। बड़े ही भजनानन्दी थे वे। वे मेरी उस गुरू बहन से बोले -‘अरे कहाँ ले जा रही हो इस बच्चे को? ये बिना वात्सल्य के समाप्त हो जायेगा देवी। ऐसी निष्ठुर मत बनों। वो बोलीं -नहीं महाराज जी, मैं पचास वर्ष की हूँ, इस बच्चे के प्रपंच में कहाँ पड़ूंगी।’ सन्त बोले -‘नहीं ये काम तुम नहीं करोगी और जो करेगी वो आएगी। मैं उसका इन्तज़ार करूँगा। और वे उस बच्चे को लेकर उसी घर के सामने बैठ गए।
ऐसे वीतराग महात्मा ने किसी बालक को अपना लिया है यह चर्चा सारे गाँव में फैल गई। सब लोग इकट्ठा हो गए। भारत की भोली जनता हर चीज़ में चमत्कार देखती है। वहाँ पैसे चढ़ना शुरू हो गए। हमें उसी घर में जाना था, हम जिद करके गुरूदेव को वहाँ लेकर गए। वहाँ भीड़ लगी देखकर हमें भी कौतुक हुआ कि देखें वहाँ क्या हो रहा है। भीड़ में प्रवेश करके जैसे ही मैंने वहाँ देखने की कोशिश की महात्मा जी ने कहा -‘आओ ऋतम्भरा, मुझे तुम्हारी ही प्रतीक्षा थी। इस बच्चे को संभालो, अपना वात्सल्य प्रदान करो।’ मैं हतप्रभ थी! भला एक संन्यासी का बच्चे से कैसा रिश्ता? लेकिन अगले ही क्षण मैंने गुरूदेव की ओर देखा। लगा जैसे गुरूदेव कह रहे हों कि ऋतम्भरा अब यही है तुम्हारी भूमिका। ऐसे बच्चों को अपना वात्सल्य बाँटों, जिन्हें उनके अपनों ने त्याग दिया। इस यहीं से मेरी वात्सल्य यात्रा शुरू हुई थी।
हम तो उपकरण मात्र है ईश्वर के। धन्य होते हैं हम, जब वे हमें अपने कार्य का निमित्त बना लेते हैं। आज इस अवसर पर मैं एक ही बात कहना चाहती हूँ कि मेरे अपने मेरे साथ सदैव रहे। बहुत थोड़ी सी शक्ति है उनकी। लेकिन उनका समर्पण वह परिणाम लाया जिसने वात्सल्य की सुन्दर सृष्टि खड़ी कर दी।
साभार - पूज्य दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा जी सम्बोधन, स्वर्ण जयंती अभिनन्दन समारोह, इंदौर
दिनांक - 3 जनवरी, 2015